बार- बार मरीज से केस हिस्ट्री पूछने पर पकड़ी गई बीमारी
जबलपुर के प्रतिष्ठित दमा रोग विशेषज्ञ डॉ परिमल स्वामी को लम्बा मेडिकल अनुभव है। दमा रोग विशेषज्ञ होने के साथ ही वे शुगर सहित अन्य कई बीमारियों में विशेषज्ञता है, प्रदेश के ख्यातिलब्ध चिकित्सक परिमल स्वामी का कहना है कि उनके गुरूओं ने हमेशा सिखाया है कि जब मरीज की बीमारी पकड़ में न आए तो बार बार उससे बीमारी की केस हिस्ट्री के बारे में पूछते रहे और बीमारी पकड़ में आएगी।
डॉ परिमल स्वामी के पास ऐसी ही एक सभ्रांत और धनाड्य परिवार की 35 वर्षीय महिला श्रीमती कल्पना (काल्पनिक नाम) आई थी। उसको लगतार उल्टियां होती थी। भोजन करना मुश्किल हो गया था।
महिला को क्या बीमारी है, इसके संबंध में पता किया गया तो महिला को सांस की बीमारी के साथ, शुगर तथा आर्थराइट था। उनके घुटने तकलीफ थी। इसके लिए विशेषज्ञ चिकित्सकों की दवाइयां चल रही थी। किन्तु कुछ महीने से उन्हें लगातार उल्टियां हो रही थी।
उल्टियां होने के कारण की खोज
महिला को उल्टियां क्यों हो रही है? इसके लिए खोजबीन करने टेस्ट कराए गए। इसके पूर्व महिला ने नागपुर एवं मुम्बई में अनेक अस्पताल एवं डॉक्टरों से चैकअप करा लिया था लेकिन उनकी सभी रिपोर्ट नार्मल आई। इस आशंका से कि कहीं ब्रेन में ट्यूमर तो नहंी है, उनको एमआरआई ओर सीटी स्क्रेन कराया गया लेकिन सिर सहित शरीर के किसी भी अंग में किसी तरह की व्याधि नहीं पाई गई। उनका ब्लड प्रेशर एवं शुगर का लेबल भी ठीक चल रहा था।
दवाइयां बंद कराई गई
इस आशंका से कि शुगर की ओरल डोज से कहीं उल्टियां तो नहीं हो रही है, उनको शुगर कंट्रोल करने वाली दवाइयां बंद कराई गई। उसके बदले इंन्सूलिन दी जाने लगी किन्तु फिर भी उल्टियां बंद नहीं हुई। यूरिन कल्चर सहित ब्लड टेस्ट , टाइराइड सहित तमाम टेस्ट कराए गए। कलर डॉपलर सहित हृदय रोग संबंधी तथा पेट की बीमारी संबंधी तमाम टेस्ट कराए गए लेकिन फिर भी उनकी उल्टियां बंद नहंी हुई। इतना ही नहीं मनोरोग चिकित्सक से सलाह ली गई लेकिन उन्होंने ने भी अपनी तमाम रिपोर्ट नार्मल बताई।
एक एक दवाइयां चैक की
महिला द्वारा ली जाने वाली एक-एक दवाई को चैक किया गया। किसी भी दवाई का साइड इफैक्ट की कोई संभावना सामने नगर नहीं आई। अनेक बाद उनसे बीमारी एवं दवाइयों के संबंध में पूछा गया लेकिन कुछ नतीजा नहीं निकला।
मरीज ने बताई छोटी से जानकारी
महिला मरीज ने बातीचीत में बताया कि कुछ माह पहले वे बनारस के एक वैद्य की पुडिया खाया करती थी जो गठियावात के लिए लेती थी लेकिन वैद्य की भी दवाइयां बंद है। उन्होंने बताया कि वैद्य काफी नामी है। पूर्व प्रधानमंत्री भी अपने घुटनों के दर्द एवं इलाज के लिए उन्ही वैद्य से दवाइयां लिया करते थे।
वैद्य की पुडिया निकली करामती
डॉ परिमल स्वामी ने वैद्य की पुडिया मंगाकर उसे टेस्ट के लिए लैब में आशंका वश भेजा तो नया रहस्य खुला । वैद्य अपनी आयुर्वेद की दवाइयों में स्टेरोइड्स का उपयोग कर रहा था। जाहिर है कि स्टेरॉइड्स सेहत के लिए बहुत ही नुकसान दायक होते हैं। लेकिन अस्थमा और आर्थराइटिस से जूझ रहे मरीजों के लिए बहुत ही फायदे मंद होता है। इससे भूख लगती है, जिससे वजन तेजी से बढ़ने लगता है। स्टेरॉइड्स शरीर के मेटाबॉलिज्म को प्रभावित करते हैं। दरअसल इस मरीज को बाहर से स्टेराइड्स बाहर से मिल रहा था और परिणाम स्वरूप शरीर में स्टेरॉइडस बनाने वाली ग्रंथी काम करना बंद कर दी थी। वैद्य की दवाई महिला ने बंद कर दी थी जिससे उन्हें उल्टियां होने लगी। उन्हें इस्टेराइड्स की दवाई शुरू की गई तो भूख लगने लगी ओर उल्टियां बंद हो गई। इसके बाद दो तीन माह में उनको इस्टेराइड्स का डोज बंद करा दिया गया। अब महिला स्वस्थ हैं।
क्या है साइड इफैक्ट
इंस्टेराइड्स के सेवन से मरीज की हड्डियां कमजोर हो जाती है और विकलांगता तक आती है। शुगर तथा अनेक बीमारी होने का खतरा बढ़ जाता है। पेट में अल्सर, शरीर में सूजन , हड्डी का घुलना आदि साइड इफैक्ट है।
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जागरूकता के अभाव में बच्चों
को मिलता है तिलतिल मरने का अभिशाप
विक्टोरिया अस्पताल की शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ मंजूलता अग्रवाल का कहना है कि थैलेसीमिया एक अनुवांशिक रोग है, जो कि जागरुकताके अभाव में जन्म लेने वाले बच्चों का अभिशाप के रूप में मिलता है। यदि विवाह के पूर्व रक्त परीक्षण कराया जाए तो संतान में इस दोष की संभावना नहीं होंगी।
प्रश्न- थैलेसीमिया किस प्रकार का होता है?
जवाब - थैलेसीमिया के दो प्रमुख प्रकार होते हे। ै। यदि पैदा होने वाले बच्चे के माता-पिता दोनों के जींस में माइनर थेलेसीमिया होता है, तो बच्चे में मेजर थेलेसीमिया हो सकता है। ये स्थिति घातक होती है। मेजर थेलेसीमिया के लक्षण तीन माह के बाद नजर आने लगते है। बच्चे को बार बार रक्त चढ़ान पड़ता है। यदि माता-पिता में किसी एक को माइनर थैलेसिमिया है तो बच्चे में भी माइनर थेलेसीमिया होता है किन्तु करीब 25 प्रतिशत बच्चे की माइनर थैलेसीमिया के शिकार होते है। इसम लाल रक्त कणिकाओं की संख्या कम होती है।
प्रश्न- विक्टोरिया में कितने बच्चे आते है।
जवाब- प्रतिमाह करीब 70 बच्चे रूटीन चैकअप के लिए विक्टोरिया पहुंचते है जिनको थैलेसीमिया है। अनके बच्चे के माता पिता निजी अस्पतालों में भी बच्चो को रक्त चढ़वा लेते है। यदि हम विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े पर गौर करते तो देश में करीब 10 हजार नए बच्चों का जन्म थैलेसीमिया रोग के साथ होता है। मध्य प्रदेश में कितने बच्चे इस बीमारी से पीड़ित है , इसका डाटा फिलहाल हमारे पास उपलब्ध नहीं है।
प्रश्न- क्या थैलेसीमिया का पुख्ता इलाज संभव है?
जवाब- थेलेसीमिया को लेकर लगातार रिसर्च चल रहे है लेकिन फिलहाल हमारे पास जो चिकित्सा पद्धति है, उसमें थैलेसीमिया का कोई स्थाई इलाज नहीं है। थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों के प्रोटीन में हैमोग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया बाधित रहती है , जिससे बच्चे एनिमिक होते है। इस स्थिति में उन्हें बार बार खून चढ़ाना पड़ता है।
प्रश्न- क्या बोन मैरो बदलना इसका स्थाई इलाज नहीं है?
जवाब- बोन मैरो थेलेसीमिया पीड़ित बच्च्चों का बदला जाता है लेकिन यह काफी महंगा इलाज है। मेरु रज्जु यानी बोन मैरो ट्रांस्प्लांट काफी कठिन प्रक्रिया है। डोलर भी मिलना कठिन काम है। फिलहाल इस तरह से इलाज अभी मुम्बई में संभव है। बोन मेरो का कार्य स्मेन सेल निर्माण का काम है जो कि आरबीसी का निर्माण करती है। इससे रोगी तो ठीक होता है कि लेकिन बाहरी बाड़ी होने के कारण इसके भी साइड इफैक्ट का खतरा बना रहता है और शरीर स्वीकार करता है अथवा नहीं ? इसके लिए समय समय पर दवाइयां देनी पड़ती है।
प्रश्न- यदि माता पिता के एक बच्चे को थैलेसिया है तो क्या दूसरे को भी होगा?
उत्तर- मेरे पास ऐसे भी केस आए है कि एक परिवार के तीन-तीन बच्चों को ये बीमारी है। यदि पहले बच्चे को रोग होता है तो करीब 90 प्रतिशत संभावना है कि दूसरे बच्चे को भी बीमारी हो सकती है। यह जीन्स के दोष के कारण बीमारी होती है।
प्रश्न -गर्भवास्था में पकड़ी जा सकती है बीमारी?
उत्तर- गर्भावस्था में तीसरे महीने में एक तरह का टेस्ट होता है जिससे यह पता चल जाता है कि गर्भस्थ शिशु थैलेसीमिया से पीड़ित तो नहंी है? यदि बच्चा पीड़ित है तो गर्भपात करा लेना बेहतर है।
प्रश्न - थैलेसीमिया के लक्षण क्या है और आखिर क्यो होती है ये बीमारी?
उत्तर -जैसा की मैने बताया कि यह अनुवांशिक बीमारी है। हीमोग्लोबीन दो तरह के प्रोटीन से बनता है अल्फा ग्लोबिन और बीटा ग्लोबिन। थैलीसीमिया इन प्रोटीन में ग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया में खराबी होने से होता है। अमूमन लाल रक्त कोशिकाएं यानी आरबीसी ा निर्माण के बाद 120 दिन तक रक्त में जीवित रहती है, इसके बाद ये नष्ट होती है तथा नई आरबीसी इसकी जगह ले लेती है किन्तु थैलेसीमिया पीड़ित मरीब में लाल रक्त कोशिकाएं 50-60 दिनों में ही नष्ट हो जाती है जिससे शरीर में हीमोग्लोबिन कम होता जाता है। इस स्थित में रक्त चढ़ाना पड़ता है। बार बार रक्त चढाए जाने से शरीर में आयरन की मात्रा काफी बढ़ती है। यह लोह तत्व हृदय, यकृत और फेफड़ों सहित अन्य अंगों के लिए घातक होता है। रोग के लक्षण बच्चे की 3 माह की आयु पूर्ण होने के साथ नजर आने लगते है। उसको रक्त की कमी हो जाती है। रक्त की कमी के कारण अंधत्व का शिकार भी बच्च्चा हो सकता है। थैलेसीमिया का टेस्ट की सुविधा आईसीएमआर में उपब्ध है। मेरा मानना है कि विवाह के पूर्व माता पिता को टेस्ट जरूर करना चाहिए। विदेश में विवाह पूर्व लोग टेस्ट कराते है लेकिन भारत में लोगों में इसके प्रति जागरूकता नहीं है।
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