Sunday, 24 April 2016

स्टेराइड के घातक साइड इफैक्टजीत पर फिजियोथैरिपीस्ट की

दीपक परोहा

स्वयं को फिजियोथैरेपी के माध्यम से फिजियोथैरेपिस्ट गौरव कोचर ने अपने को चलने फिरने लायक बनाया। स्टेराइड मेडिशन के साइड इफैक्टर से उनके कुल्हें खराब हो गए। कुल्हे बदले जाने के बाद भी विकलांगता बनी रही, ऐसे में फिजियोथैरेपी से उन्होनें अपने कूल्हों में जान डाली। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा अनेक लकवा पीड़ित लोगों को अपने पैरों पर खड़ा किया गया है।
-----------------------------------------------------
जबलपुर। गौरव कोचर का कहना है कि मै जब अपनी क्लिनिक से निकला तो मुझे आटो की आवाज और सड़क में होने वाला शोरगुल नहीं सुनाई दे रहा था। दुनिया बड़ी अजीब लगी। अचानक सुनाई देना बंद होने से मै घबरा गया। तत्काल नाक काल गला रोग चिकित्सक डॉ. नितिन अड़गांवकर के पास पहुंचे। उन्होंने परीक्षण उपरांत जो बीमारी के संबंध में बताया तो मेरा सोचने की झमता सुन्न पड़ने लगी थी। उन्होंने बताया कि अज्ञात वायरल अटैक से स्थिति निर्मित हुई है। श्रवण संबंधी तंत्रिका तंत्र को वायरस नष्ट कर रहे है। अभी बहरा पन है आगे कुछ भी हो सकता है। उपचार के लिए स्टेराइड के इंजैक्श देने होंगे। मै स्टेराइड के साइड इफैक्ट के बारे में सुन रखा था। इससे विकलांगता तक आ सकती है लेकिन मुझे शारीरिक विकलांगता मंजूर थी लेकिन बहरापन नहीं।
 जबलपुर के प्रमुख फिजियो थैरिपिस्ट गौरव कोचर का यह कहना है। उनके साथ ये वाक्या कुछ साल पहले घटित हुआ। कान में सुनाई न पड़ने के कारण इलाज चला, दिल्ली के एम्स हास्पिटल में भी श्री कोचर ने इलाज करवाया, वहां भी चिकित्सक ने इस अज्ञात वायरस के संबंध में कोई विशेष जानकारी नहीं दे पाए। बहरहाल स्टेराइड  युक्त दवाइयों से बेहरापन दूर हुआ। श्री कौचर का इस संबंध में स्टराइड को लेकर कहना है कि भले ही इसके साइड इफैक्ट जानलेवा एवं जहर की तरह है लेकिन यह दवाई जादू की तरह है, ये अमृत है और मानव जीवन को बचाने में बेहद कारगर है।
उन्होंने बताया कि सड़क दुर्घटनाओं में खासतौर पर जब ब्रेन इंज्यूरी होती है अथवा मांस पेशिया बुरी तरह डैमेज होती है और उससे विकलांगता
 होने का खतरा रहा है तब स्टेराइड या स्टेराड युक्त दवाइयां ही जीवन बचाती है। इस दवाई का साइड डिफैक्ट भी हर किसी को नहंी होता है। किन्तु श्री कोचर दुर्भाग्य शाली रहे इस मामले में। दवाई के प्रभाव से उनके कुल्हे की हड़डी खराब हो गई।
डॉक्टर कोचर को वायरल इफैक्ट के ऐवेसकुलर नेकरोसिस नामक बीमारी हुई जिससे उनको बहरापन आ गया लेकिन यह स्थायी नहीं हो पाया किन्तु कुल्हे खराब होने से विकलांगता आ गई। इसके इलाज के लिए डॉ जितेन्द्र जामदार के हास्पिटल मे कुल्हा रिपलेस्मेंट किया गया। किन्तु इस कुल्हा रिपलेस्टमेंट के बाद फिर अपने पैरों खड़े होने और चलने के लिए जरूरी था कि फिजियोथैरपी की। गौरव कोचर जो स्वयं फियोथैरेपिस्ट है उन्होंने अपने स्टूडेंट के साथ मिलकर स्वयं फिजियोंथैरेपी की इक्ससाइज प्रारंभी की। कुछ महीने में ही वे चलने फिरने लगे ह और अपने मरीजों के लिए प्रेरणा है, बीमारी से लड़ने के लिए फियोथैरेपी के साथ ही उनमें आत्म विश्वास जगाने के लिए उनका स्वयं का उदाहरण है।
बाक्स -1
सन 1998 से कार्यरत
फिजियोथैरेपिस्ट डॉ  गौरव कोचरसन 1998 से जबलपुर में विभिन्न रूप से शारीरिक विकलांगता से जूझ रहे मरीजों का इलाज कर रहे है। उनकी मांस पेशियों एवं हड्डियों में उर्जा का संचार कर रहे है। उन्हें अपने पैरों पर खड़ा कर रहे है। नगर के कई अस्पताल में वे कंस्लटेंट है। उनका स्वयं का फिजियोथैरेपी सेंटर भी है। अब तक उन्होंने 25-30 फिजियोथैरिपिस्ट को प्रशिक्षण भी दे चुके है।
बाक्स -2
8 साल की उम्र से आ रही शुभि
धनवंतरी नगर निवासी शुभी शुक्ला के दोनों पैरों में जान डालने में गौरव कोचर कामयाब हुए है। शुभि शुक्ला जब 7-8 वर्ष की थी तो अचानक उसके दोनो पैर लकवा ग्रस्त हो गए। बिस्तर एवं व्हील चेयर से लग गई। उसकी रीड की हड्डी में ट्यूमर था जिसके कारण विकलांगता आ गई।
आॅपरेशन कर ट्यूमर तो निकाल दिया गया लेकिन बेजान हो चुके पैरों में जान नहीं आई। गौरव कोचर ने एक्सरसाइज कराना शुरू किया। करीब एक साल के पयास के बाद पैर हिलना शुरू हुए। इसके बाद धीरे धीरे कर पैरों में जान आने लगी। फिजियोथैरेपी का कमाल यह है कि 10 साल में शुभी शुक्ला एक स्टिक के सहारे से चलने लगी है। धैर्य के साथ चल रहे एक्सरसाइज और मरीज में होने वाले सुधर को देखते हुए पूरी उम्मीद है कि साल डेढ़ साल में स्टिक भी छूट जाएगी ।
बाक्स -2
2013 से चल रहा इलाज
शहडोल निवासी अंजना मिश्रा छत से गिर गई थी। उसकी रीड की हड्डी कई टुकड़े हो गई। रीड की हड्डी का इलाज हुआ लेकिन डॉक्टरों ने कह दिया कि पूरी जिंदगी बिस्तर में ही गुजारनी पड़ेगी। अंजना मिश्रा बैठ भी नहंी पाती थी। कमर के नीचे का पूरा पूरा शरीर सुन्न था। किन्तु इसको धैर्य के साथ फिजियोथैरेपी दी गई। अब अंजना मिश्रा बैठने लगी है। उसके एक पैर में जान आ चुकी है किन्तु दूसरा पैर वह स्वयं से हिलाने लगी है। अंजना मिश्रा का कहना है कि वे लगातार उनके फिजियो थैरेपिस्ट श्री कोचर की सलाह पर अभ्यास कर रहीं है। उन्हें उम्मीद है कि दूसरा पैर भी काम करने लगेगा।

अब जेल में ही बंदियों की पेशी होगी आॅनलाइन



* केन्द्रीय जेल जल ही जुड़ेगे सभी कोर्ट से
 जबलपुर। प्रदेश के  जेल जल्द ही प्रदेश की कोर्ट से जुडने जा रहे है। इसके लिए जेलों में वीडियों कांफ्रेसिंग की व्यवस्था की गई है किन्तु अभी समस्त जेल को सभी कोर्ट से जोड़ने की प्रक्रिया के तहत साफ्टवेयर तैयार करने का काम चल रहा है। आने वाले कुछ महीनों में समस्त जेल और कोर्ट आपस में जुड जाएंगे जिससे बंदियों की पेशी आॅन लाइन कोर्ट में हो जाएगी।
जेल विभाग इस योजना पर करीब एक साल से कार्य कर रहा है। जबलपुर सहित प्रदेश के कुछ केन्द्रीय जेल स्थानीय आदालतों से जुड़ चुके हैं तथा बंदियों की आॅन लाइन पेशी भी प्रारंभ कर दी गई है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस केन्द्रीय जेल तथा जबलपुर जिला अदालत के बीच वीडियो कांफे्रसिंग शूरू हो चुकी है। इसी तरह केन्द्रीय जेल भोपाल सहित स्थानीय कोर्ट में वीडियो कांफ्रेसिंग से बंदिया को पेशी हो रही है। प्रदेश के अन्य कुछ जेल जिला अदालतों से जुड चुके है किन्तु केन्द्रीय जेल को प्रदेश की सभी कोर्ट से जोड़े जाने के कार्य में लगातार विलम्ब हो रहा है। इसकी वजह सफ्टवेयर तैयार कर लोड किए जाना मुख्य कारण बनाया जा रहा है। वहीं जेल सूत्रों का कहना है कि अगले कुछ महीनों में साफ्टवेयर लोड हो जाएगा। इसका लाभ यह होगा कि यदि भोपाल या अन्य कोर्ट को प्रदेश कि किसी अन्य जेल में बंद बंदी को पेशी पर बुलाना है तो उसे बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी और आॅन लाइन बंदी की पेशी हो जाएगी।  उल्लेखनीय है कि जेल तथा कोर्ट के मध्य पेशी के लिए बंदी को लोने ले जाने तथा कोर्ट लॉकप में रखे जाने के दौरान सैकड़ो अप्रिय घटनाएं हुई जिसके चलते आॅन लाइन पेशी का निर्णय शासन ने लिया।
केन्द्रीय जेल जबलपुर में प्रतिदिन 25-30 बंदियों की आॅन लाइन पेशी हो रही है। दरअसल निचली कोर्ट में पेशी के दौरान अमूमन भौतिक रूप से बंदी की उपस्थिति जरूरी नहीं होती है इस स्थिति में आॅन लाइन ही पेशी होती है किन्तु जब कोर्ट में बंदी से सवाल जवाब उसकी उपस्थिति में होना होता है तो कोर्ट में पेश किए जा रहे है।
वर्जन
जिला कोर्ट तथा केन्द्रीय जेल के बीच वीडियो कांफ्रेसिंग के काफी सकरात्मक परिणाम आए है। बंदी को पेशी पर ले जाने की बड़ी पुलिस बल की रहती है। इस समस्या से काफी हद तक वीडियो कांफ्रेसिंग से निपटा गया है किन्तु शहर से बाहर बंदियों के पेशी में अब भी ले जाना पड़ता है। जेल विभाग जल्द ही आॅन लाइन प्रदेश के समस्त कोर्ट करने जा रहा है किन्तु इसमें अभी कुछ विलम्ब लग सकता है।
अखिलेश तोमर
जेल अधीक्षक  

.. भिखारियों ,नि:सहाय की खैर खबर लेने वाला



 दो दर्जन से अधिक का इलाज कराया गया
 
जबलपुर। 60 वर्षीय अनिल दुआ,परिवारिक जवाबदारी से निवृत होने के बाद अब अपने जीवन का लक्ष्य पीड़ित मानवता की सेवा लेगा रहे है। परिवार में कैंसर पीड़ित सदस्य का दर्द देखने के बाद उन्होंने कैंसर पीड़ितों की मदद का बीड़ा उठाया और सद् गुरू सेंसर सोसायटी का गठन कर उसके बैनर तले काम शुरू किया किन्तु कैंसर पीड़ितों की मदद के अलावा उन्होंने एक रास्ता सेवा का और चुना। वह है बीमार नि:सहाय और भिखारियों की मदद का।
 यूं तो अनिल दुआ ने पीड़ितों की मदद के लिए सोसायटी बनाई है लेकिन अभीउनके साथ ज्यादा लोग नहंी जुड़े है लेकिन वे आशा के साथ इस काम में जुटे है। उनका निवासी आदर्श नगर में है। प्रतिदिन ग्वारीघाट चले जाते है। इस तीर्थ स्थल में डेढ़ दो सौ भिखारी रहते है। इसमें से अधिकांश जर्जर वृद्ध और अपाहिज होते है। दान सेउनके पेट तो भर जाते है लेकिन किन शारीरिक व्याधि और परेशानी उनके लिए जानलेवा होती है। यदि कोई भिखारी बुखार, वायरल फीवर अथवा अन्य किसी बीमारी से पीड़ित है तो उसको सरकारी अस्पताल तक ले जाने वाला कोई नहीं होते है। दुआ हर भिखारी से उनकी खैरियत और हालचाल पूछते है। यदि कोई बीमार होता है तो उसे  तत्काल समीप स्थित गीताधाम ट्रस्ट हास्पिटल अथवा विक्टोरिया अस्पताल आटो रिक्शा करके ले जाते है। आटो रिक्शा का खर्चा और स्वयं का समय ही उन्हे देना पड़ता है। इस बीमार भिखारी को सहारा मिल जाता है, उसको अपना को रिश्तेनाते दार श्री दुआ लगने लगते और दुआ भी देते है।

केस -1
उदय सोनी उम्र 30 को बचपन में टाइट फाइट हुआ। इससे उनको लाइलाज बीमारी ने घेर लिया। जबलपुर सहित नागपुर तथा अन्य शहरों के डाक्टरों ने इस बीमारी का कोई इलाज न होने के कारण पल्ला झाड़ चुके है। इस बीमार का नाम है मस्कुलर डिसट्रापी। बताया गया कि इस बीमारी को लेकर अभी दुनिया मे रिसर्च चल रहा है। बीमारी के दौरान वायरल के हमले से  मरीज के हाथ पैर सहित समूचे अंग के नर्व कमजोर पड़ गए है। मरीज इलाज कराते कराते इस अवसाद की स्थिति में पहुंच गया कि वह सिर्फ बिस्तर से उठना नहीं चाहता है। उसका पूरा संसार उसके विस्तर के इर्द गिर्द है। इस मरीज के संबंध जानकारी मिलने पर दुआ उनके पास हर हफ्ते मिलने जाते है। उसे प्रोत्साहित कर डाक्टरों के पास ले जाते है। शहर के कई नामी चिकित्सकों के पास ले जा चुके है। वर्तमान में आयुर्वेदिक डॉक्टर का इलाज दिलवा रहे है। मरीज में आत्मखोया हुआ आत्मविश्वास भर रहे है। उसे पढ़ाई लिखाई के लिए प्रेरित कर रहे। इस मरीज का कहना है कि कोई अपना है जो उसकी खैर खबर लेने आता है। मेरे कोई अपना दोस्त या मित्र नहंी है।
केस -2
ग्वारीघाट में  भिखारन निशा गोस्वामी पिछले पांच साल से रह रही है। वह नैनपुर की रहने वाली है। करीब डेढ़ साल पहले उसकी आंख में जदस्त इंफैक्शन हो गया। उसको दिखना बंद हो गया। इसको लेकर वे डॉक्टर डॉ पवन स्थापक के पास पहुंचे। वहां इस महिला का लगभग मुफ्त इलाज हुआ किन्तु भिखारन का दुर्भाग्य था कि डॉ पवन स्थापक ने इलाज चैक करने के बाद बताया कि निशा गोस्वामी की रैटीना की नर्व पूरी तरह डैमेज है अब वह कभी नहंी देख पाएगी। निशा गोस्वामी का कहनाहै कि भले ही वह देख नही पा रही है लेकिन उसकी खैर खबर लेने वाला कोई है।
केस-
37 वर्षीय संतोष चौधरी बरगी नगर निवासी है। वह विवाहित है तथा उसके दो बच्चे भी है । मजदूरी कर जीवन व्यापन करता थो। पैर में टीबी की बीमारी हो गई जिसमें उसके पूरे रूपए खर्च हो गए और  अपाहिज की तरह हो गया। टीबी का इलाज आधा रूक गया। टीवी का आधा इलाज बेहद खतरनाक माना जाता है। किसी तहर वह श्री दुआ के संपर्क में आया। उसे तथा उसको बरगी नगर से लाकर मोहल्ले के पार्क में माली का काम सौंपा तथा वहा एक कमरा दिलवाया जिसमें पूरा परिवार रहता है। इसके बाद  टीबी का छह माह तक लगातार दवाइयां कराई गई। प्रतिदिन फालो किया गया कि वह दवाई ले रहा है अथवा नहंी । अनेकों बार उसे ा। अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉक्टर जितेन्द्र जामदार तथा  टीबी हास्पिटल लगातार लेकर जाना पड़ा। संतोष चौधरी का कहना है कि उसकी  रिपोर्ट पाजेटिव आ गई तो अब अपने पैरों पर चलता है और पार्क की देखरेख भी कर रहा है। उसका परिवार प्रशन्नचित है।

वर्जन -
मेरे द्वारा असहाय बीमार को ज्यादातर  शासकीय अस्पताल ले जाता हूं जिससे उसके इलाज में कम से कम खर्चा आए।  मरीज के  खानपान का ध्यान रख जाता है तथा उसमें आत्मविश्वास रखने प्रयास किया जाता है, जिससे वह अपने बीमारी से स्वयं लड़ सके। उसको लाने ले जाने सहित अन्य कुछ कार्य में छिटपुट खर्चा होता है जिसको वे पूरा करने कोशिश करते हैं।
अनिल दुआ
समाज सेवी  

बहुत कुछ बदला है लेकिन कुछ स्मृतियां संजोई गई

 राष्ट्रप्रेम हिलोरे मार रहा था, नए गणतंत्र का था उत्साह

दीपक परोहा
संस्कारधानी यानी जबलपुर को देशप्रेम का लम्बा इतिहास है। आजादी पूर्व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जबलपुर की गलियों में घूम चुके थे। नेता जी सुभाष  चंद्र बोस जबलपुर की जेल में अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बीच रह चुके थे। नेता जी के फार्वड ब्लाक का गठन भी यहां हुआ था। जबलपुर के पहले गणतंत्र दिवस के साक्षियों की माने तो नव स्वाधीनता की चमक नगरवासियों के चेहरे में थी और अपना संविधान मिलने की खुशी उनसे बयान हीं हो पा रही थी। देश के नव निर्माण और नवयुग का सूत्रापात हो गया था। लोग 15 अगस्त को बंटवारे की टीस भुला रहे थे। पहला गणतंत्र दिवस मनाने के लिए शहर को दीवाली की तरह पूर्व संध्या को रोशन किया गया था। कमानिया गेट से लेकर लार्डगंज तक विद्युत छटा की गई थी। यही क्षेत्र जबलपुर का हृदय स्थल तब था और अब भी कहा जाता है।
26 जनवरी 1950 को पहला और यादगार गणतंत्र दिवस मनाया गया। ये पहला गणतंत्र दिवस था, जब कमानियां गेट में बूंदी की मिठाई बंटी। इसके बाद से ही गणतंत्र दिवस पर शिक्षण संस्थाओं एवं अन्य संस्थाओं में गणतंत्र दिवस पर मिठाई बंटने की परंपरा शुरू हुई।
वयोवृद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कोमल चंद जैन ने बताया कि 26 जनवरी, 1950 के दिन सुबह से ही राष्ट्रवादी लोगों की भीड़ श्रीनाथ की तलैया और फुहार में लग गई। लोग गणतंत्र अमर रहे के नारे लगा रहे थे। ध्वजारोहण राष्ट्रगान के साथ हुआ। बाद के वर्षो में गणतंत्र दिवस प्रशासन ने समारोह पूर्वक मनाना शुरू किया था। पहला गणतंत्र दिवस तो स्वतंत्रता दिवस की तरह उत्साह से पूरे शहर में मनाया गया था, वह परंपरा अब भी जारी है लोग जगह जगह घ्वजारोहण करते हैं। आन-बान- शान से तिरंगा लहराते आ रहे है।
बहुत कुछ बदला है 65 साल में


जबलपुर में पहले गणतंत्र दिवस के बाद से अब तक बहुत कुछ बदल गया है, लेकिन कुछ स्मृतियां संजो कर रखी गई है जिसमें कमानिया गेट, घंटाघर

और प्राचीन शासकीय भवन हैं। टाउनहाल, हाईकोर्ट जैसी पुरानी एतिहासिक इमारतें अब भी बुलंद हैें।  शहर का हृदय स्थल फुहारा का स्वरूप भी कई बार बदला है। शहर की पहचान फुहारा हुआ करता था। फुहारा सौंदर्यीकरण के लिए तीन  बार टूटा और बना। पहले फुहारे में में इतनी भीड़ नहीं हुआ करती थी लेकिन 65 साल में शहर और आबादी बढ़ने के साथ शहर का खूबसूरत फुहारा अराजक बाजार में तब्दील हो गया है। मुख्य शहर कभी गोलबाजार के साथ खत्म हो जाता था अब तो शहर का छोर नर्मदा तक पहुंच गया है।
शहर के शासकीय दफ्तरों में भी काफी बदलाव आए है। वयोवृद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी छोटे लाल सोनी ने बताया कि शहर का मुख्य डाकघर तिलकभूमि तलैया में हुआ करता था। डाक विभाग के अफसर की बड़ी इज्जत हुआ करती थी। यहां पोस्टकार्ड और डाक टिकट लेने दूर दराज के गांवों से लोग आया करते थे अब मुख्य डाकघर सिविल लाइन में बड़ी बिल्डिंग में चलता है। यहां सिर्फ डाकघर भर है जो अब भी पुराने भवन में चल रहा है।
एतिहासिक है कोतवाली थाना
नगर कोतवाली यानी वर्तमान कोतवाली थाना और उसकी बिल्डिंग एतिहासिक इमारतों में शुमार है। यहां अंग्रेज अफसर बैठा करते थे। कोतवाली थाना बिल्डिंग आज भी अपने पुराने स्वरूप में मौजूद है। बाद में टीआई कक्ष तथा सीएसपी कक्ष में मार्बल लगाए गए तथा भीतर की दीवारों में प्लास्टर पुट्टी कर रंगरोगन किया गया। इसी तरह लार्डगंज थाना भी एहितासिक थाना है अब भी लार्डगंज थाने की बिल्डिंग पुराने स्वरूप में हे। यहा भीतरी सज्जा में मामूली बदलाव किया गया है। 

एक गरीब मां की होनहार बेटी मीना मेहरा

एक गरीब मां की होनहार बेटी मीना मेहरा
दीपक परोहा
जबलपुर। एक गरीब माँ रात भर पत्थर उबालती रही..बच्चे पानी पीकर सो गए, किसी कवि की ये पंक्तियां तहसीलदार मीरा मेहरा के जीवन में सटीक उतरती है। मीरा मेहरा उसकी बहनें एवं भाइयों का बचपन एवं शिक्षा बेहद गरीबी और फांकेहाली की स्थिति में गुजरा है। उनकी मां कई बार बेर की झाड़ी से बेरी तोड़कर बच्च्चों को खिलाकर उनके पेट भरा करती थीं और कई बार वे कहा करती थीं कि आज बेर का भी जुगाड़ नहीं है, भूखे पेट सोना पड़ेगा।
 सिवनी जिले में पदस्थ मीरा मेहरा से जब उनके एजूकेशन और स्कूल के दिनों के बारे में पूछा जाता है तो अपने उन दिनों की याद आने पर आंखें भर आती हैं। मीरा मेहरा का जीवन संघर्ष भरा जरूर रहा लेकिन उन्होंने विभाग में अपनी मेहनत लगन से नाम कमाया है। मीरा मेहरा को जो फांका हाली का सामना करना पड़ा। भूखे रहने का दर्द महसूस किया है, उसके कारण उनके घर में आने वाला कोई गरीब व्यक्ति भूखा नहीं जाता है। धार्मिक आयोजन तथा विभिन्न मौके पर भंडारे आदी करना उनका शौक बन गया है।
पिता खाली हाथ लौटते थे रोज
मीरा मेहरा के पिता कमल सिंह नरसिंहपुर जिले से जबलपुर काम की तलाश में आए थे, प्रिंटिंग प्रेस का काम जानते थे। प्रतिदिन घर से काम के लिए निकलते थे लेकिन कई-कई दिन काम नहीं मिलता था। ऐसे में खाली हाथ की अक्सर घर लौटते थे। उनकी मां श्रीमती सरोज सिंह सिलाई-कढ़ाई कर किसी तरह परिवार को गुजर-बसर करती रहीं।
दुकानदार देता था उधार में किताब
मीरा मेहरा और उसके परिवार की मॉली हालत जानकर बस स्टेंड में एक स्टेशनरी एवं बुक की दुकान संचालक उनको उधार में किताबें एवं कापियां दिया करता था। मीरा मेहरा बताती हैं कि अब न जाने किताब वाला कहां चला गया है, उसकी आज भी उधारी बाकी है।

अच्छा खाने के लिए तरसते थे
मीरा मेहरा की मां सरोज सिंह पड़ोसियों के घर जाकर घरेलू काम कर देती थीं। मीरा तथा उसकी बहनें अपनी मां के साथ पड़ोसियों के घर इस लालच में चली जाती थीं कि शायद उन्हें खाने मिल जाए।
डिप्टी कलेक्टर बन सकती थी
मीरा मेहरा ने पीएससी की परीक्षा दी तो उन्होंने प्रथम वरीयता नायब तहसीलदार के लिए भरा लेकिन जब परीक्षा परिणाम निकला तो उन्हें बताया गया कि उनका प्रावीण्य सूची में स्थान था यदि वे डिप्टी कलेक्टर के लिए फार्म में प्रथम वरीयता डिप्टी कलेक्टर के लिए भरतीं तो वे डिप्टी कलेक्टर बन जातीं। वर्तमान में अपने कार्य के प्रति वे संतुष्ट हैं और उनका प्रयास रहता है कि गरीबों का उत्थान हो और उनके क्षेत्र का कोई भी व्यक्ति भूखे पेट न रहे। वर्तमान में मीरा मेहरा धनौरा जिला सिवनी में तहसीलदार हैं। उनसे बड़ी बहन श्रीमती माया दास महिला बाल विकास अधिकारी, बड़ा भाई अमर सिंह एसबीआई में अधिकारी तथा छोटे भाई राजेन्द्र सिंह इंजीनियरिंग कालेज में स्पोर्टस् आफिसर हैं।

जंगल के राजा को किंग कोबरा से बचाने कवायद


केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण ने जारी किए निर्देश
जबलपुर। जंगल के राजा को किंग कोबरा से बचाने वन अमला एवं चिड़ियाघर प्रबंधन विशेष रूप से सतर्क है। दरअसल इंदौर चिड़ियाघर में 29 दिसम्बर को किंग कोबरा ने बाड़े में एक सफेद टाइगर को डस कर मार डाला था। विलुप्त होती सफेद टाइगर की मौत ने केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण को हिलाकर रख दिया था। गर्मी के सीजन में चिड़ियाघर एवं नेशनल पार्क के बाड़ों में सर्प निकलने की घटनाएं बढ़ने के मद्देनजर किंग कोबरा से टाइगर को बचाने विशेष प्रयास शुरू किए गए है।
ज्ञात हो कि ं 29 दिसम्बर को किंग कोबरा ने इंदौर चिड़ियाघर में बाड़े में एक सफेद टाइगर को डस लिया जिससे उसकी मौत हो गई। टाइगर राजन की मौत को लेकर केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण के आला अधिकारियों ने जांच पड़ताल की और विशेषज्ञों के दल से रिपोर्ट मांगी गई। इस रिपोर्ट के बाद केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण इस नतीजे पर पहुंचा है कि बाड़े में वाइल्ड एनीमल को रखने अब तक बने नियम निर्देश वैसे ही कड़े हैं लेकिन शेरों को किंग कोबरा से खतरा रहता है और इसके लिए सभी चिड़ियाघर तथा नेशनल पार्क जो इनक्लोजर में शेर-चीतों को रखते हैं, उनकी जहरीले सांप से सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए जाए।
इस संबंध में केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण ने समस्त नेशनल पार्क एवं चिड़ियाघरों को सरकुलर भी जारी कर रखा है। इसके तहत चिड़ियाघरों को शेरों की सुरक्षा और खासतौर पर किंग कोबरा जैसे विषधर से बचाने और अधिक इंतजाम करने के निर्देश दिए है। इसके साथ प्रदेश के अनेक चिड़ियाघरों में सर्प विशेषज्ञों एवं सर्प पकड़ने वालों का सहयोग लिया जा रहा है।
सर्प विशेषज्ञ को बुलाया गया
जबलपुर के सर्प विशेषज्ञ मनीष कुलश्रेष्ठ को पन्ना नेशनल पार्क सहित रीवा में वाइट टाइगर प्रोजेक्ट से बुलाया जा चुका है। नेशनल पार्क में जहां टाइगरों को बाड़े में रखा गया हैं, वहां आसपास सर्प की मौजूदगी का पता लगाकर उनके पकड़ा भी जा रहा है। इस कार्य के लिए मनीष कुलश्रेष्ठ द्वारा वन कर्मियों को लगातार प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
 चिड़ियाघर में चूहे न पाले जाए
चिड़ियाघरों में जानवारों को दिए जाने वाले चने एवं अन्य खाद्यान्न डालने पर भी रोक लगाई जाने पर विचार चल रहा है। इस तरह के अनाज  चूहों को आकर्षित करते है और ये चूहे चिड़ियाघरों में जगह जगह बिल बना देते हैं और यही बिल जहरीलें सांप का घर बनता है और चूहे उनकी खुराक बनती है। इंदौर, भोपाल तथा ग्वालियर स्थित चिड़ियाघरों में पहले भी कई बार जहरीले सर्प निकल चुके है। इस सांपों से यहां के जंगली जानवारों पर मौत का खतरा मंडराता रहता है।
वर्जन
नेशनल पार्क से सांप को तो नहीं भगाए जा सकते हैं लेकिन जहां टाइगरों को बाड़े में रखा जाता है, वहां से सर्प न पहुंचे इसकी व्यवस्था बेहद जरूरी है। बाड़े में अमूमन सर्प पकड़ने वाले का घुसना मुश्किल रहता है। शेर के रहने वाली जगह का तापमान भी सांप के अनुकूल रहता है और बाड़े में चूहे भी रहते है जिसके कारण यहां सर्प न पहुंचे इसके इंतजाम बेहद जरूरी है। वर्तमान में इस दिशा में काम चल रहा है।
मनीष कुलश्रेष्ठ
प्राणी विशेषज्ञ 

स्वाधीनता संग्राम की चश्मदीद



102 वर्षीय गिरजा बाई
 देश की गुलामी का दौर और बाद में स्वतंत्र भारत की तस्वीर देखने वाली चश्मदीद गिरजाबाई अवस्थी को इस अवस्था में भी वो दौर याद हैं। धुंधली होती स्मृति में आज भी 15 अगस्त  1947 का दिन और भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू की याद जीवित हैं।
गिरजाबाई का जन्म 1913 में बरमान के समीप पुरैना गांव में हुआ था। जब वे 15 वर्ष की हुई तो विवाह तुलसी राम अवस्थी निवासी मढ़ाताल के संग हुआ था।  स्वर्गीय तुलसीराम समाचार पत्र बांटने का काम किया करते थे। पराधीन भारत के समाचार पत्रों में उन दिनों गांधी और नेहरू की खबरें प्रमुखता से छपती थी। गिरजाबाई का कहना है कि आजादी की लड़ाई के लिए किसी ने अपना सुहाग तो किसी ने अपनी औलाद तो किसी ने अपना जीवन ही समाप्त कर लिया , ये खबरें उन्हें मिलती रहती थी। अंग्रेजी हूकूमत में हम भय के साए में रहा करते थे, 102 साल की गिरजा बाई अवस्थी ने बताया कि 1942 में भारत छोड़ो अंदोलन के दौरान जब अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम सेनानीयों ने भारत को स्वतंत्र कराने का संकल्प लिया था तब जवाहर लाल नेहरू जेल चले गए थे और रक्षा बंधन का पर्व हुआ आया था। इस दौरान  नेहरू जी की बहिन विजय लक्ष्मी की खबर प्रकाशित हुई थी, वह मुझे आज भी याद है। परिजनों ने बताया  कि वे  उन पंक्तियों को आज भी याद करने की कोशिश करती है और गुनगुनाते हुए रोने लगती है। जिक्र आने पर रोते हुए कविता सुनाने लगी ---
अम्मा मुझ को जल्द बता दे , कब आएगा प्रिय भाई
रात बीतती है, कल प्यारी रक्षा बंधन तिथि आई ।
--------------------------------------------------------
2*****
 मैं उन दिनों नागपुर में विशप कान्वेंट में कक्षा 5 वीं में पढ़ता था। स्कूल में अंग्रेजित छाई हुई थी। यहां हिन्दुस्तानी विद्यार्थियों से जबदस्त भेदभाव हुआ करता था। आगे की डेस्क में अंग्रेज बच्चे तथा बाद की डेस्क में इग्लो इंडियन बच्चे बैठते थे। हिन्दुस्तानियों को पीछे बैठना पड़ता था। अंग्रेजी के टीचर गलती होने पर कहा करता था तुम से तो अच्छे हमारे कुत्ते हैं वो भी अंग्रेजी समझ जाते है। तुम हिन्दुस्तानी कुत्तों से बदतर हो। कितना भी

होशियार छात्र हो उसे गोरे छात्र से अच्छे नम्बर नहीं मिलते थे। जब 15 अगस्त 1947 को स्कूल में स्वतंत्रता की घोषणा हुई तो बच्चे खुशी से झूम उठे लेकिन स्कूल में कोई कार्यक्रम नहंी हुआ। घर आने पर पता चला कि पूरे नागपुर में जश्न चल रहा है। रेलवे ड्रायवर तेज हार्न बजाकर खुशी जाहिर कर रहे थे।  
एचके जॉबाज, सेवानिवृत लेफ्टिनेंट कर्नल, ब्रिगेड आॅफ दी गार्ड
-----------------------------------------------------------
ू3******
मंै इंदौर में टैक्स टाइल इलाके में रहता था। मेरे पिता राजकुमार टैक्सटाइलर् ीय मिल में नौकरी करते थे। हम मिल के क्वाटर्स में रहते थे। कभी कभी पुलिस वहां से निकलती थी तो मां मुझे छिपा लेती थी। पुलिस वाले हाफ पेंट पहने होते थे। लोगों में अंग्रेजी हुकुमत का जबदस्त भय था। कहीं भी चार पांच से ज्यादा लोगों को एकत्र होने की अनुमति नहीं हुआ करती थी जिसके कारण उनके एरिया में कोई कार्यक्रम आदि नहीं हुआ करते थे। देश के आजाद होने की खबर मुझे अपने पिता से मिली थी। मिल में उस दिन छुट्टी कर दी गई थी और पहली बार यहां एक साथ लोगों की भीड़ लगी थी और वे भारत माता जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे तथा ध्वजा रोहण किया गया था। शहर से दूर इलाका होने के कारण यहा आजादी का बड़ा जश्न नहीं मनाया गया था।
            सुरेश पवास, सेवा निवृत जेआर मैनेजर आर्डनेंस फैक्टरी
--------------------------------------------------------
4******
मेरा जन्म सन 1939 को अजमेर में हुआ था। मेरे परिवार का सोने चांदी का कारोबार था। पिता जीवन भाई बड़े कारोबारियों में थे। मै जब कक्षा 3 री  में पढ़ रहा था। उस दौरान लोगों में जबदस्त देशप्रेम का उत्साह भरा हुआ था। घर में जल्द ही देश आजाद होने की चर्चा चलती थी। अंग्रेजों से लोगों का भय कम होते जा रहा था लेकिन पुलिस का भय लोगों में बना हुआ था। मै भी पुलिस वालों को देखकर घर में छिप जाया करता था। एक दिन अचानक माहौल बदल गया। लोग महात्मा गांधी जिंदाबाद के नारे लगाने लगे, झंड़ा लेकर लोगों की रैली सड़क पर निकल आई। अजमेर में चारो तरफ जश्न का माहौल था, वो दिन था 15 अगस्त 1947 का। बाद में मेरे पिता व्यवसाय कि सिलसिल में जबलपुर आ गए।
 केएल सोनी, सेवानिवृत मैनेजर, सेंट्रल बैक
------------------------------------------------------------5*******
मै उन दिनों दीक्षितपुरा में रहता था। उम्र करीब 6 वर्ष की थी लेकिन स्कूल नहीं जाता था। माता पिता घर से नहीं निकलने देते थे। रात को पुलिस के घोड़ों की टापे सुनाई देती थी। पहली बार दीक्षितपुरा में मै जिस गली में रहता था। वहां 15 अगस्त को महात्मा गांधी की जयकारे गूंजने लगे थे। लोग तिरंगा झंडा लहराते हुए भारत माता की जय कह रहे थे। वंदेमातरम् गूंज रहा  था। मोहल्ले में चोंगे बजने लगे थे। लोग एक दूसरे को मिठाइयां  खिला रहे थे तब मुझे पता चला कि देश आजाद हो गया है। अब अंग्रेज भारत छोड़ कर चले जाएंगे। आजादी के  कई दिनों बाद तक लोगों में आजादी का उत्साह था। लोगों ने दीवाली की तरह घरों के सामने दीए जलाए थे। उस दौर में बच्चे बच्चे आजादी का मायना जानते थे।
 सतीश दबे, सेवानिवृत इंजीनियर
-----------------------------------------------------------
6 ****
 मेरे पिता रेलवे हरवंश प्रसाद तिवारी रेलवे में नौकरी करते थे। मेरी उम्र आज 86 साल की हो गई है। सन 1947 को जब देश आजाद हुआ था तब मै मॉडल हाई स्कूल में कक्षा 11 वीं पढ़ रहा था। अगस्त के पहले ही देश आजाद होने की खबर फैल चुकी थी और भारत पाकिस्तान के बंटवारे की भी खबर थी।  देश आजाद होने के पहले ही लोग पाकिस्तान जाने लगे थे। मेरी कक्षा के कुछ मुस्लिम साथी पढ़ाई छोड़ कर चले गए। इसी तरह बाहर से लोगों के  आने का क्रम शुरू हो गया था। आजादी की घोषणा 14 अगस्त की रात को हो गई थी और सुबह से ही जश्न का माहौल शुरू हो गया। पूरे शहर में जगह जगह ध्वजारोहण हुए। लोगों की गांधी टोपी पहले लोगों की भीड़ फुहारा में लगी थी। रात को पूरा शहर रौशनी से जगमगा रहा था।
                 श्री कृष्ण तिवारी, सेवा निवृत डिप्टी चीफ कंट्रोलर रेलवे
------------------------------------------------------------
7******
 58 वर्ष की आयु में 15 साल पहले मै मिनिस्ट्री आॅफ पावर से राजपत्रित अधिकारी के पद से सेवानिवृत  हुआ था। आजादी का जश्न कैसा मना था मुझे नहीं मालूम उन दिनों मेरा परिवार अपनी जान बचाने जुटा था। मेरे पिता जो रावल पिंडी में बीटी शिक्षक थे। उनके साथ हम अपने घर में दुबके थे। इस दौरान के घटनाक्रम का मुझे यह याद है कि मै ट्रेन के छत पर अपने परिवार के साथ था। सीढ़ी लगाकर कोई खाना देने आया था। पाकिस्तान से हम अमृतसर पहुंचे थे। वहां से हरियाणा और कई शहरों का चक्कर लगाते हुए पिताजी हमे दिल्ली ले आए।  पिता की नौकरी लग गई और मै स्कूल जाने लगा तथा दिल्ली कालेज से बीए किया। इस दौरान नेहरू जी से भी मुलाकात का अवसर मिला था। हमे आजादी मिली जरूतर लेकिन हमने बटवारे के रूप में बढ़ी कीमत चुकाई, अब भ्रष्टाचार की दीमक आजादी को खोखला कर रही है।
टीएन शर्मा, सेवानिवृत अधिकारी, मिस्टरी आॅफ इंडिया गार्मेट
------------------------------------------------------------
स्वाधीनता दिवस को लेकर टिप्पणी

बड़ी कुर्बानियां देने के बाद हमें आजादी मिली है। हमारे बुर्जगों की कुर्बानी का नतीजा है कि हम आजाद है। दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र फल फूल रहा है। कल्पना करिए कि यदि आज सवा करोड़ की जनता गुलाम देश की नागरिक होती तो शायद लोगों को भूखे मरना पड़ता। भारत ने आजादी के बाद हर क्षेत्र में तरक्की की है। हमारे पास आणविक शक्ति विद्यमान है। हम तकनीकि और शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणीय है। स्वतंत्रता दिवस पर हमे संकल्प लेना चाहिए देश की एकता और अखंडता की।
 विश्वनाथ दुबे, उद्योगपति
------------------------------------------------------------
भारत की स्वतंत्रता ही उसकी शक्ति है जिसका लोहा पूरी दुनिया मान रही है। इतना विशाल प्रजातंत्र दुनिया में किसी स्वतंत्र देश में नहीं है। यहां आम जनता का राज चल रहा है। दुनिया के विकसित देशों में उंचे पदों और बढ़ी कंपनियों में भारतीय व्यक्ति मौजूद है। दुनिया में कहीं भी इंडिया और इंडियन लोगों को सम्मान मिलता है। मिशाल नकनीति तथा आणविक ताकत में हम कम नहीं है। चिकित्सा, शिक्षा और तकनीकी क्षेत्र में विकास के नए आयाम स्थापित किए गए है। यह सब कुछ हमे आजादी के बाद हाशिल हुआ है।


डॉ. धीरावाणी, डायरेक्ट जबलपुर हास्पिटल
-------------------------------------------------------------


देश स्वाधीनता जयंती मना रहे है। आजादी के बाद से जनता अच्छे दिन का इंतजार कर रही है। इंतजार की घड़ियां खत्म नहीं हो रही है। एक से दूसरी पीढ़ी बदल गई है। स्वाधीनता संग्राम के दौर के लोग गुजर गए है। भारत युवाओं को देश कहा जाने लगा है।  देश स्वाधीनता के साथ लोगों को आशाएं थी उस पर धुंध अब भी छाई है। जिन उद्देश्य को लेकर स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी गई थी। इस लक्ष्यपथ पर कितनी गति हासिल की ये मापने वाले अब नहीं रहे। नेशनल कांग्रेस अपनी राष्ट्रीयता की छबि से हट कर सत्ता भोगी बन गई। ऐसा समझा गया कि 15 अगस्त 1947 को गुलाम भारत के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश के अच्छे दिन आ गए हैं, जनता ने आजादी के साथ भारत पाकिस्तान के बंटवारे का एतिहासिक फसाद भोगा।  पंडित जवाहर लाल नेहरू को दो तिहाई से अधिक का बहुमत देकर अपना वजीरेआजम चुना था। वर्ष दर वर्ष बीते 1948 की कश्मीरी संग्राम,1962 में चाइना वार का दंश जनता ने भोगा। कांग्रेस की सफल प्रधानमंत्री और अंतराष्ट्रीय कूटनीतिज्ञ इंदिरा गांधी के मीसा का दौर देखा। 20 वीं शताब्दी के भारत ने आतंकवाद का शैतान, महंगाई का दानव, बेरोजगार का राक्षस, भ्रष्टाचार का वेताल, आर्थिक अंतर की नर्क यह सब भोग रही है आजाद देश की सवा करोड़ जनता । आजादी के लिए गांधी, सुभाष, नेहरु, भगत, चंद्रशेखर ने बलिदान दिए जो अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ थे। इन शैतानों से त्रस्त नए दौर के लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करने वाले एक गांधीवादी को नया गांधी मानने तैयार हो गए। एक दफा ऐसा लगा कि अन्ना हजारे ने राष्ट्रवादिता की रग पर हाथ रख दिया है गांधी टोपी की तरह अन्ना टोपी मीडिया से लोगों के दिलों में छा गई लेकिन यह सिर्फ  एक संकेत ही था। ये सकेत था लोगों में भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश का, व्यवस्था के खिलाफ जंगे एलान का । लड़ाई अंग्रेजोंं से नही अपने नौकरशाह  काले अंग्रेजों से लड़ने तत्पर थे। 11 अगस्त 2011 को तरूणाई ने बूढ़े के नेतृत्व में अंगड़ाई ली तो इसे आजादी के बाद के दूसरे बड़े जनांदोलन की संज्ञा दी गई। स्वाधीन देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था ने आजादी की 63 वीं जयंती के पर्व लोगों को मौका दिया इन शैतानों की गुलामी से आजादी के लिए सत्ता परिवर्तन का।  इस बार नरेन्द्र मोदी पर भरोसा कर उन्हें स्पष्ट बहुमत नेहरू जी की तरह दिया। फिर जागी है आशा अच्छे दिनों की। इस दूसरी लड़ाई जनता ने अपने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल कर जीती है। कट्टर दक्षिण पंथियों, जातिवादी , साम्प्रदायिक जोड़तोड़ को नकारते हुए एक स्वर से नए नेत्रत्व से अपेक्षाएं की गई है। फिर साबित हुआ है कि हम आजाद है, हमारा भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, मेरा भारत महान है। सत्ता के उगते और ढलते सूरज को देखने वाली दिल्ली ने नए भारत की नई संसद देखी। लाल किले में लहराता फिरंगा फिर एकबार दुनिया में भारत की स्वाधीनता का वजूद पेश करेगा इस  आशा के साथ की अच्छे दिन आने वाले है।
*  जरा याद करो वो कुर्बानी ....
** फुहारा में रात को ब्लैक आउट कराती थी पुलिस
**स्वतंत्रता संग्राम के वो दिन, सेनानी की जुवानी  
 दीपक परोहा
जबलपुर। 8 अगस्त सन 1942 को महात्मागांधी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन के आगाज के साथ ही संस्कारधानी के देश प्रेमियों में आजादी के लिए गजब

का उत्साह हिलोरे मारने लगा था। नेशनल कांग्रेस की इस करो या मरो की इस घोषणा के साथ ही जबलपुर में जबदस्त हलचल मच गई। अंग्रेज हुकुमत इस आंदोलन को पूरी तरह कुचलने तत्पर हो गई। रात होते ही फुहार सहित समूचे इलाके में ब्लैक आउट कर दिया जाता था। सड़कों पर फिरंगी सैनिकों के घोड़ों की टाप भर सुनाई दिया करती थी।
 स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कोमलचंद जैन स्वाधीनता आंदोलन की याद करते हुए बताते है कि उस समय मै कक्षा छटवीं का छात्र था। मेरे बड़े भाई प्रेम चंद जैन तथा नेम चंद जैन दोनों ही घोर राष्ट्रवादी और ब्रिटिश हुकुमत की खिलाफ करने वाले सेनानी थी। श्री कोमलचंद जैन शहर के चंद स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में शुमार है जिन्होंने सन 1942 में करवट लेते आजादी कल लड़ाई के चश्मदीद हैं, 30 जुलाई 1930 में जन्में कोमलचंद जैन किशोर अवस्था में ही स्वाधीनता आंदोलन में कूद गए।
उन्होंने स्मृति पर जोर देते हुए बताया कि तिलकभूमि तलैया में देश प्रेमियों की एक विशाल सभा हुई। इसमें वे भी अपने दोनों भाइयों के साथ वहां पहुंच गए। उस दौरान जबलपुर शहर की मुख्य बस्ती वाला इलाका फुहारा, लार्डगंज, गढ़ा फाटक, कोतवाल तथा अंधेरदेव क्षेत्र तक सिमटा हुआ था। संस्कारधानी में सेठ गोविंदास, पंडित भवानी प्रसाद तिवारीं, सवाईमल जैन के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन का आगाज हुआ था। पुलिस ने श्रीनाथ की तलैया को घेर लिया। वहां एकत्र वंदेमारतम् का नारा लगाते देश भक्तों को घेर कर गिरफ्तार किया गया।
12 वर्षीय कोमलचंद को भी गिरफ्तार कर पुलिस कोतवाली थाना ले आई। पूरी रात लाकप में रखने के बाद केन्द्रीय जेल भेज दिया गया। वहां पर प्रेम चंद, नेम चंद, ज्ञानचंद जैन, हीरालाल सहित सैकड़ों स्वतंत्रता संग्राम सैनानी बंद किए गए। जेल में वंदे मातरम्  के नारे जब भी लगते थे तो सेनानियों की पिटाई होती थी। बड़ी गोल में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को रखा गया था।

बासी रोटी का नाश्ता
जेल के दिनों को याद करते हुए कोमलचंद जैन ने बताया कि नाश्ता में एक बासी रोटी सुबह मिलती थी। दोपहर को खाने के लिए चार रोटी मिलती थी। करीब एक माह जेल में कैद में रहने के बाद कोमलचंद जैन को रिहा कर दिया गया लेकिन उनके दोनों भाई करीब दो वर्ष तक जेल में कैद रहे।
जगमग हो गया शहर
कोमलचंद जैन ने बताया कि 15 अगस्त 1947 को आजादी के दिन समूचा शहर दुल्हन की तरह सज गया था। फुहारा बिजली के लट्टू से जगमगा रहा था। लोगों ने दीवाली की तरह घरों में दीपक जलाए थे। जश्न का ऐसा नजारा दोबारा जबलपुर में नहीं देखा गया। पूर शहर फुहारा में उमड़ आया ऐसा लग रहा था। देश भक्तों की टोलियां गांधी टोपी पहने कमानिया पहुंच रही थी तथा ध्वजा रोहण किया गया। उन्होंने बताया कि स्वाधीनता दिवस और आज की संस्कारधानी में बहुत बदलाव आया है। वक्त के साथ उनके साथी एक एक कर गुजरते गए। अब चंद सेनानी बचे है, उनकी खोज-खबर कांग्रेसी नेता लेने लगे है।
--------------------------------------------------------

आलू-प्याज सस्ते और सुलभ होंगे







प्रदेश की पहली हार्टीकल्चर विवि के लिए कवायद
जबलपुर।  प्रदेश खाद्यान उत्पादन में भले ही वृद्धि की है, दो बार प्रदेश को कृषिकर्मणा पुरूस्कार मिल चुका है लेकिन अब भी प्रदेश में सब्जी उत्पादन में पिछड़ा है। सीजन में भी आलू -प्याज और हरी सब्जियों के तेवर उंचे बने रहते है। ऐसे में आम लोगों को सस्ती सब्जी उपलब्ध होए इसके लिए प्रदेश में पहली हार्टीकल्चर विश्व विद्यालय खोलने कवायद चल रही है इसका प्रस्ताव कृषि विश्वविद्यालय ने तैयार कर रहा है।
इस विश्व विद्यालय का मुख्य उद्देश्य आम जनता को सस्ती सब्जी के रास्ता प्रशस्त तो करना है ही,  इसके लिए सब्जी उत्पादन के लिए गहन अनुसंधान के साथ ही प्रदेश के किसानों को सब्जी उत्पादन के लिए प्रशिक्षण देना मुख्य उद्देश्य होगा, जिससे सब्जी के मामले में प्रदेश आत्मनिर्भर बने। हॉर्टीकल्चर विश्व विद्यालय का एक  उद्देश्य यह भी रहेगा कि बेमौसम सब्जी उत्पादन के साथ ही जो उपज यहां नहीं होती है उसको भी प्राप्त करना है।
मालूम हो प्रदेश में आलू उत्तर प्रदेश तो प्याज महाराष्ट्र से आती है। आलू -प्याज के भाव इस कदर चढ़े है कि प्रदेश की गरीब ही नहीं मध्यम वर्गी  भी प्याज का स्वाद चखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है।  आम आदमी को मिलने वाली सबसे सस्ती सब्जी उनकी पहुंच के बाहर हो चली है। भटे के भटा भाव भी आसमान पर है।  ऐसे में हरी सब्जी कैसे गरीब वर्ग तक मुहैया हो सकती है? इस दिशा में गहन मंथन कृषि वैज्ञानिक  रहे है। हाल्टीकल्चर विश्व विद्यालय प्रदेश में खुलता है तो कृषि उत्पादन में नए आयाम मिलेगे। यूं तो प्रदेश सकरार का हाल्टीकल्चर विभाग मौजद है लेकिन यह अत्याधुनिक तरीके से किसानों को बागवानी नहीं सिखा पा रहा है।
जबलपुर में प्रस्तावित
प्रदेश में हार्टीकल्चर विश्व विद्यालय खोलने के लिए जबलपुर अनुकूल समझा जा रहा है और इसे ही विवि के लिए प्रस्तावित किया गया हे इसकी मुख्य वजह यह है कि कृषि विश्व विद्यालय में पहले से ही हाल्टीकल्चर विभाग है। जबलपुर के आसपास प्रदेश सरकार की भी कई हाल्टीकल्चर नर्सरी मौजूद है।
ये है मुख्य जरूरत
विभाग को लगभ 300 हेक्टेयर उपजाऊ जमीन की जरूरत है जो जबलपुर के आसपास विकसित की जा रही है। प्रस्ताव के मुताबिक करीब 600 करोड़ का वजट विश्वि विद्यालय के लिए चाहिए।

प्रदेश में हाल्टीकल्चर विश्व विद्यालय खोलने के लिए सरकार ने प्रस्ताव तैयार करने कहा है जो तैयार किया जा रहा है। प्रस्ताव तैयार करने के बाद राज्य शासन को भेजा जाएग।
 राजेश पॉलीवाल
रजिस्टार जेएनकेवीवी
प्रदेश में हाल्टीकल्चर विश्व विद्यालय खोलने संबंधी प्रस्ताव तैयार करने पर  काफी काम किया जा चुका है। विवि खुलने से पूरे प्रदेश को इसका लाभ होगा।
डॉ.एसएस तोमर
रिटा. डायरेक्टर रिसर्च,जेएनकेवीवी 

हैलमेट लगाए बिना बाइक नहीं होगी स्टार्ट




*  इंजीनियरिंग छात्रों ने बताई हैलमेट में डिवाइज
जबलपुर। आबादी की तुलना में पूरे देश में सर्वाधिक सड़क दुर्घटनाओं में मौत का प्रतिशत जबलपुर का है। अधिकांश सड़क हादसों में दो पहिया वाहन सवारों की मौत की वजह हैड इंज्यूरी होती है। हाईकोर्ट के आदेश पर शासन ने  हैलमेट अनिवार्य कर रखा है लेकिन इसके बावजूद लोग हैलमेट नहीं लगा रहे है ऐसे में कोई विकल्प ऐसा होए कि  बिना हेलमेट के वाहन नहीं चल पाए। इस परिकल्पना को जबलपुर के इंजीनियरिंग छात्रों ने साकार कर दिया है। बिना हैलमेट लगाई बाइक स्टार्ट ही नहीं हो सकेगी। हैलमेट में ऐसे डिवाइज लगाने का कमाल इंजीनियरिंग कालेज के छात्रों ने किया है।
 यह डिवाइज बहुत कठिन नहंी है। रिमोर्ट लॉक की तरह एक सेसर डिवाइज है। हैलमेट सिर पर रखते ही बटन आॅन हो जाती है ओर रिमोर्ट  के संकेत के साथ ही स्वीच आॅन होता है। बिना हैलमेट के गाडी स्टार्ट न होने की परिकल्पना साकार हो जाती है। इंजीनियरिंग छात्रों ने अपनी गाड़ी और हैलमेट में डिवाइज लगाई है। उनका कहना है कि इससे उनकी स्वयं की बिना हैलमेट के गाड़ी चलाने की आदत छूट जाएगी। कितनी भी जल्दी होएगी बिना हैलमेट के वे घर से नहीं निकल पाएंग। इस डिवाइज को तैयार करने वाले ज्ञानगंगा कालेज के छात्र प्रखर साहू एवं रूचि तिवारी हैं।
वर्जन
 हैलमेट सेंसर प्रणाली पर काम करती है। इसको तैयार करने में लगभग 5 हजार रूपए का खर्च आया है। इस डिवाइज का एक हिस्सा गाड़ी में तो दूसरा हैलमेट में होता है। हैलमेट लगाये बिना राईडर बाईक चला ही नही सकता है। प्रशासन यदि चाहे और सस्ते में डिवाइज बनाकर लोगों के हैलमेट एवं बाइक में डिवाइज निकलवा सकते है।
 रुची तिवारी
इंजीनियरिंग छात्रा
इस डिवाइज की खासियत यह है कि यदि गाड़ी चलाते वक्त आपने हैलमेट निकाला तो गाड़ी का इंजन भी खुद बंद हो जाएगा।  देश भर में हर साल सड़क हादसों में मरने वाले हजारो बाईकरों के बारे में जानने के बाद हम छात्रों के मन में ऐसी डिवाइज बनाने का विचार आया और हमले मिलकर इसे बना बनाया है।
 प्रखर साहू
इंजीनियरिंग छात्र


डेढ़ घंटे में ज्वाइंट रिप्लेसमेंट की चुनौती


 डॉ. जितेन्द्र जामदार ने 23 साल पहले
किया था जबलपुर में पहला आॅपरेशन

भारत के चिकित्सा जगत में ं आज से करीब 30 साल पहले घुटने के ज्वाइंट रिप्लेसमेंट के काम में तेजी आई। इसके पूर्व लोग विदेशो मेंज्वाइंट रिप्लेसमेंट कराया करते थे। करीब 23 साल पहले जबलपुर के ख्यातिलब्ध अस्थि रोग विशेषज्ञ , त्रिवेणी हास्पिटल के डायरेक्टर डॉ. जितेन्द्र जामदार ने जबलपुर में पहला घुटने का ज्वाइंट रिप्लेसमेंट1992 में किया। उस दौरान पूरे भारत में दो दर्जन चिकित्सक ही इस नई तकनीकि के आपरेशन करने वाले और जानकार थे। यहां तक इंदौर जैसे बड़े शहर में ज्वाइंट रिप्लेसमेंंट नहीं होता था। उस समय न ओटी अत्याधिक थी और न कम्प्यूटराइज , मैनुअल तरीके से आॅपरेशन करना पड़ता था। हड्डी काटने में भी काफी वक्त था, इस पर डेढ़ घंटे में आॅपरेशन पूरा करने की चुनौती थी।
डॉ जितेन्द्र जामदार ने अपनी पहले चुनौती पूर्ण केस के अनुभव शेयर करते हुए बताया कि आपरेशन करते वक्त घुटना के उपर बेंडेज बांधना पड़ता था जिससे खून का प्रवाह रूक सके और घुटनों का आॅपरेशन किया जाए। इसके लिए अधिकतम डेढ़ घंटे का समय रहता था। अब भी घुटने का आॅपरेशन डेढ़ घंटे में ही करना पड़ता है लेकिन उस दौर में आधुनिक उपकरण नहीं थे, और न ही कम्प्यूटराइज मशीने थी।
एक्सरे मुख्य आधार
आॅपरेशन करने के लिए एक्सरे ही मुख्य अधार होता था। कई कोण से एक्सरे लेने के बाद पहले ही पूरी स्टडी कर प्लानिंग कर ली जाती थी कि कहां से आॅपरेशन शुरू करना है और कहां से हड़डी काट कर उसकी जगह नया ज्वाइंट डालना है। बेहद समीति समय में तेजी से काम करना होता था और इस जल्दी में भी आॅपरेशन 100 फीसदी सटीक होना चाहिए था चूंकि ज्वाइंट ऐसे होत थे कि  बैठना बेहहद जरूरी था।

रूमटॉयड अर्थाराइटिस की थी मरीज
डॉ जामदार के अनुसार मेरे पास एक 40 वर्षीय महिला आई इलाज के लिए आई थी
जिसका नाम कृष्णा शुक्ला था जो आमनपुर की रहने वाली थी। वह रूमटॉयड अर्थाराइटिस यानी गठियाबाद से पीड़ित थी। इसे क्रॉनिक अर्थाराइटिस कहा जाता है। उस दौरान इसका इलाज बेहद मुश्किल एवं दवाइयां जोखिम भरी हुआ करती थी। महिला के लगभग सभी जोड़ अकड़ चुके थे। उसके दोनों कुल्हें और दोनों घुटने खराब थे। विकलांग जैसी हालत थी। उसका पहले एक कुल्हें का आॅपरेशन करे कुल्हे रिप्लेसमेंट किए गए। उसके करीब छह माह बाद घुटने को चुनौती पूर्ण आॅपरेशन किया गया।
ज्वाइंट देशी लगाया गया
डॉ. िजतेन्द्र जामदार ने बताया कि कृष्णा शुक्ला के घुटने के रिप्लेसमेंट के लिए कृत्रिम ज्वाइंट की जरूरत थी जो कि विदेशी आते थे तथा बेहद महंगे थे लेकिन विदेशी की हुबबू नकल देशी ज्वाइंट भी आया करते थे किन्तु उसकी विश्वनीय नहीं थे। डॉ जितेन्द्र जामदार के गुरू , पदमभूषण डॉ कांतिलाल हस्तीमल संचेती जिनके पास उन्होंने ने घुटने रिप्लेसमेंट का प्रशिक्षण लिया था। वे उस दौरान स्वयं की डिजाइन किए गए ज्वाइंट आइनरो कम्पनी से बनवाते थे। वहंी ज्वाइंट महिला के घुटने में रिप्लेसमेंट किया गया। करीब छह माह बाद महिला स्वयं फिर डॉ जितेन्द्र जामदार के पास आई और उसने दूसरे घुटने का आॅपरेशन कराने पेशकश की। डॉ जामदार का इस संबंध में कहना है कि यही प्रमाण था कि उनको पहला आॅपरेशन सफल सफल रहा है जो मरीज दूसरा आॅपरेशन करने आया। अबतक डॉ जितेन्द्र जामदार ने 1000 से अधिक आॅपरेशन किए है जबकि 100 से अधिक आॅपरेशन उन्होंने बिना आधुनिक मशीन एवं सीमित संसाधनों से किए। ाा थिा

 अब  कम्प्यूटर नविगेशन पद्धति
डॉ. जितेन्द्र जामदार ने वर्ष 1991 में इग्लैंड से जोड़ प्रत्यारोपण के लिए विश्व विख्यात केन्द्र राइटिगन अस्पताल से प्रशिक्षण हासिल किया। उस दौरान उनके पास मुम्बई के कई अस्पतालों से आॅफर आए लेकिन उन्होंने जबलपुर में ही अपनी सेवा देने का निर्णय लिया था डॉ. जितेन्द्र जामदार ने बताया कि वर्ष 2012 से कम्प्यूटर नॅविगेशन पद्धति से आॅपरेशन शुरू किया गया है। उन्होंने बताया कि आधुनिक मशीनों के आ जाने से अब आॅपरेशन बेहद आसान हो गए हैं। मशीनों की मदद से प्रत्यारोपण करने के लिए एक एक डिग्री तथा स्थान तय हो जाते हैं, जिससे चूक की कोई संभावना नहीं रहती है। उन्होंने बताया कि नॅविगेशन सिस्टम विश्व स्तरीय आॅपरेशन का मानक है। इससे जोड़ प्रत्यारोपण में बारीकी और सफाई से जोड़ सटीक बैठाया जाता है। उन्होंने बताया कि घुटने का प्रत्यारोण बेहद जटिल आॅपरेशन है, किन्तु अब कम्यूटरीकृत मशीनें आने से बेहद सरल हो गया है। इसमें मानवीय त्रुटि की गुंजाइश लगभग खत्म हो गई है।

हर साल बढ़ता तापमान


 जबलपुर। अप्रैल माह में इस वर्ष गर्मी अपने पिछले दस वर्ष का रिकार्ड तोड़ रही है। इस माह के दूसरे पखवाड़े में प्रदेश का अधिकतम तापमान 44 डिग्री पार कर चुका है। इस वर्ष गर्मी के बढ़े तापमान को लेकर मौसम वैज्ञानिक भले ही असमंजस में नहीं है और अच्छे मानसून के संकेत बता रह है लेकिन सामान्य मौसम के इस बदले रूख को प्राकृतिक आपदा और ग्लोबल वार्मिग का  कारण मान रहे है।
मौसम विशेषज्ञों की ही माने तो ग्लोबल वार्मिग के कारण पिछल्ले 100 सालों में भू मंडलीय तापमान में 1.3 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। इसी तरह भारत में औसत तापमान 200 वर्ष में 2.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है।
पिछले एक दसक से मध्य प्रदेश के शहरों औसत तापमान प्रतिवर्ष .03 डिग्री सेल्सियस बढ़ौतरी हुई है जिसके पीछे तेजी से जंगलों का कटना तथा कार्बन डाइआक्साइड जैसी ग्रीन गैस में बढौतरी वैज्ञानिक मान रहे है। इसके अतिरिक्त देश के ही अनेक बड़े शहरों में ये बढ़ौतरी .07 तक दर्ज की गई है। जानकारों की माने तो जबलपुर में पिछले दस वर्षो मं औसतन 0.05 डिग्री तापमान में औसत बढ़ौतरी दर्ज की गई है। मध्यप्रदेश में  अधिकतम तापमान 0.06 डिग्री सेल्सियस हर साल बढ़ रहा है। इतना ही नहीं ठंड के सीजन में भी औसत तापमान 0.02 डिग्री सेल्सियस  बढ़ा है।
अलनीनो इफैक्ट
 मौसम वैज्ञानिक एसके नायक ने बताया कि पिछले कुछ वर्षो में तापमान में आ रही तेजी की वजह अलनीनो इफैक्ट रहा है। इसके कारण मध्य  प्रदेश सहित देश में औसत से कम वर्षा हुई है। वर्षा कम होने के कारण तापमान में बढौतरी ज्यादा रही है। इस वर्ष अलनीनो इफैक्ट का असर हुआ है जिससे मानसून सहित मौसम सिस्टम में सुधार की संभावना है।
श्री नायक ने बताया कि कम वर्षा के कारण तापमान में बढौतरी दर्ज की गई है किन्तु इसके साथ ही मानसून को लेकर मौसम विभाग का पूर्वानुमान है कि  मानसून शतप्रतिशत रहेगा।

रिश्तो को निभा रही रूपा



  * 15 साल की किशोरी मजदूरी
     कर चला रही परिवार

जबलपुर। शास्त्रीनगर में झोपड़-पट्टी में रहने वाली 15 वर्षीय रूपा का बचपन गुड्डा -गुड़ियों के खेल में नहीं बीता है, उसको बचपन से ही नाजुक कंधों में गृहस्थी का बोझ मिला है। उसके उसके माता पिता की कुछ साल पहले अचानक मानसिक स्थिति खराब हो गई तो रूपा के सामने अपना ,अपने माता-पिता और 5 साल के छोटे भाई का पेट भरने की समस्या खड़ी हो गई। अब वह मेहनत मजदूरी तथा कुछ घरों में झाडू- पोछा का काम कर रिश्ते निभा रही है।
  अपने माता -पिता की मानसिक स्थिति खराब होने पर रूपा ने बाल श्रमिक के रूप से 12 वर्ष की उम्र से काम करना शुरू किया। रूपा बताती है कि उसे पहले 50 रूपए दिन भी काम करने पर मिलते थे। लेकिन अब 150-200 रूपए तक मजदूरी मिल जाती है। बच्चों को लोग काम पर कम ही लगाते है। लेकिन अब मुझे लोग मजदूरी देने लगे है। कई बार काम नहीं मिलने पर घ्रर में चूल्हा तक नहीं जलता है लेकिन  फिलहाल मेहनत मजदूरी कर अपने घर वालों का पेट पाल रही है।
पिता की लाश भी उठाई
 रूपा की कहानी आम बाल श्रमिक से हट कर है। पिछले दिनों गत 11 अप्रैल को रूपा के विक्षिप्त पिता की मौत हो गई। वह बीमारी से पीड़ित था। मेडिकल कालेज अस्पताल में जब 15 वर्षीय रूपा को उसके पिता की लाश सौंपी गई तो उसके पास समस्या खड़ी हो गई कि पिता का अंतिम संस्कार कैसे करे। पिता की बीमारी के कारण कई दिन से मजदूरी

पर नहीं गई थी। 10 रूपए पास में नहीं थे लेकिन एक सामाजिक संस्था ने अंतिम संस्कार की व्यवस्था कर दी और रूपा ने अपने पिता की अर्थी को कांधा और शव को अग्नि प्रदान की।
भाई को पढ़ने भेज  रही
रूपा जहां  स्वयं मजदूरी करती है वहीं अपने भाई को प्राथमिक शाला में पढ़ने के लिए भेजती है7 मजदूरी से लौटने के बाद अपनी विक्षिप्त मां की देख रेख करने लगी है। पिता की मौत के बाद अब फिर रूपा की अपनी बाल श्रमिक की दिनचर्या शुरू हो गई है।
 ने जब से होश संभाला तो

मध्य प्रदेश में पेड़ काटने के बाद मात्र 10 प्रतिशत पौधा रोपण

मध्य प्रदेश में पेड़ काटने के बाद मात्र 10 प्रतिशत पौधा रोपण
 6 हजार हैक्टेयर में वृक्षों का किया कत्लेआम
जबलपुर। मध्य प्रदेश में विकास के नाम पर प्रदेश में बड़ी तेजी हरे-भरे वृक्षों का कत्लेआम चल रहा है। मात्र 1 साल में 6 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र काटा गया। राष्ट्रीय राजमार्ग के विकास के लिए 1 लाख 81 हजार पेड़ काट डाले गए और मात्र 10 प्रतिशत पेड़ लगाए गए है।
यह चौकाने वाला खुलासा भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान देहरादून की रिपोर्ट में हुआ है। नागरिक उपभोक्ता मंच युवा प्रकोष्ठ के मनीष शर्मा ने इस रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि वहीं राष्टÑीय राजमार्ग प्राधिकरण व नगर पालिका निगम ने वकास के नाम पर शहरों में पिछले पांच सालों से वृक्षों की अंधधुन्ध कटाई चल रही है।
 क्या है रिपोर्ट
भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान देहरादून द्वारा 14 वीं वन परिक्षेत्र रिपोर्ट के तहत मध्य प्रदेश में वर्ष 2014-15 में वन भूमि 77, 462 वर्ग मीटर रह गई है। लिहाजा महज एक वर्ष में वन भूमि करीब 6 हजार हेक्टेयर घट गई। यह कटाई पर्यावरण के दृष्टिकोण से बेहद गंभीर है। इन आंकड़ों से प्रकृति प्रेमी काफी दुखी हैं। लिहाजा अब वे नियमों को ताक पर रख हो रही वृक्षों की कटाई मामले में न्यायालय की शरण में जाने की तैयारी में हैं।


बिना योजनाके कटाई
राष्टÑीय राजमार्ग प्राधिकरण एवं रोड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन भोपाल से आरटीआई के तहत निकाली गई जानकारी से खुलासा हुआ है कि पिछले पांच सालों में सड़क चौड़ीकरण, उन्नयन के नाम पर 1 लाख 81 हजार 622 वृक्षों को काटा गया है। यह संख्या वह जो शासकीय विभागों में दर्ज है।
 जिले वार स्थिति
अगर जिले वार आंकड़ों पर नजर दौड़ाई जाए तो जबलपुर में 40145 वृक्षों को काटा गया। इसके अलावा उज्जैन में15778, ग्वालियर में 9760, बुरहानपुर में 1479, सागर में 1439, गुना में 1195 वृक्ष पिछले साल में काट डाले।
वन विकास निगम भी पीछे नहीं
राज्य वन विकास निगम भी जंगलों का सफाया करने में पीछे नहीं है। आरटीआई में राजेश चक्रवर्ती एवं रानी जायसवाल को मिली जानकारी के मुताबिक राज्य वन विकास निगम ने पिछले तीन साल में खंडवा जिले में
22399.79 हेक्टेयर वन क्षेत्र में करीब 46715 वृक्षों को काटा डाला गया। वहीं पूरे प्रदेश में यह आंकड़ा लाखों में पहुंच चुका है।
ननिज ने काटे 2670 पेड़
पेड़ काटने के नाम पर नगर निगम जबलपुर भी पीछे नहीं है। पिछले पांच सालों में जेएमसी जबलपुर ने करीब 2670 वृक्षों को काटा, जबकि 2 हजार से ज्यादा काटे गए वृक्षों का निगम के पास रिकॉर्ड नहीं है। जेएमसी को इन काटे गए वृक्षों के बदले डेढ़ लाख पौधे लगने चाहिए थे, लेकिन महज 10
हजार पौधे लगाकर औपचारिकता पूरी कर ली गई।
ये है कटाई के नियम
 मध्य प्रदेश वृक्षों की कटाई का प्रतिषेध या विनियमन नियम 2007 व
न्यायालय के निर्देश के तहत काटे गए वृक्षों के अनुपात में 10 गुना पौधों उक्त संस्थाओं को लगाना चाहिए था, लेकिन इस नियम का किसी ने पालन नहीं किया।

भीषण गर्मी से मर रहे परिंदे


  45 डिग्री तापमान
   होता है घातक
जबलपुर। पड़ोसी जिला दमोह में पारा लगतार 45 डिग्री के आसपास पहुंच रहा है, वहीं जिलें में जबदस्त जल संकट के साथ ही यहां के  जंगलों  में भीषण सूखा सामने आया है जिससे परिंदों की मौत होने लगी है।
जानकारो की माने तो मार्च- अप्रैल माह में जंगल में पत्ते गिरने से पेड़ों की छाया चली जाती है ऐसे में परिंदों के घौंसलों में सीधी धूप एवं गर्म हवाओं के थपेड़े पड़ते है लेकिन अप्रैल माह में ही नए और हरे पत्ते आने शुरू हो जाते है किन्तु इस वर्ष अप्रैल माह में  ही मई की तरह भीषण गर्मी ने दस्तक दी है और दमोह में पारा उछल कर 45 डिग्री पर पहुंच गया है। इसके चलते जिले में छोटी प्रजाति के परिंदों की गर्म हवाओं के प्रभाव से मौत होने लगी है।
गिद्ध सुरक्षित
दमोह जिला जहां चट्टानी इलाका होने के साथ गिद्धों का आवासीय क्षेत्र है। इस  भीषण गर्मी में गिद्धों को कोई विशेष अंतर नहंी आया है।  जानकारों की माने तो बड़े  पक्षी जहां भीषण गर्मी और लू लपेट के बावजूद लम्बी उड़ान भरने के साथ अपने स्वयं के पंखों की छांव के सहारे गर्मी काट लेते है। दरअसल गर्मी का ज्याद असर गौरेया, लव वर्ड  तथा अन्य छोटे पक्षियों पर पड़ रहा है।
प्रवासी पक्षी नदारत
इधर जबलपुर में इस वर्ष नर्मदा तट पर गंगा से बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षियों का डेरा था जो मार्च माह के अंत तक ग्वारीघाट क्षेत्र में अपना डेरा जमाए हुए थे लेकिन अप्रैल में माह में हुई तेज गर्मी के साथ वे  पलायान कर गए  है।
वर्जन
45 डिग्री से अधिक गर्मी में जहां छोटे तथा कमजोर परिंदे मरते है लेकिन उम्र में बड़े तथा मजबूत परिंदे इस गर्मी को  बर्दास्त कर लेते है। दरअसल इस सीजन में  वे कीट पतंगे आदि खाकर अपने शरीर में पानी की कर्मी पूरी कर लेते है और सूर्य की तपिश से बचने छांव की तलाश भी कर लेते है लेकिन इसके बावजूद परिंदों की मौत हर साल गर्मियों में होती है।
मनीष कुलश्रेष्ठ

सिहोरा में 35 सौ करोड़ का प्राजेक्ट आएगा

सिहोरा में 35 सौ करोड़ का प्राजेक्ट आएगा
  स्टील उद्योग शुरू करने
 कंपनी ने तेज किया काम
जबलपुर। जिले के ओद्योगिक प्रक्षेत्र हरगढ़ से कुछ किलोमीटर दूर घुघरा गांव में 35 सौ करोड़ की लागत से जल्द ही स्टील प्लांट शुरू होने जा रहा है। इसके लिए दुबई की कंपनी में काम शुरू कर दिया है। अब तक पेट्रोलियम पदार्थ का काम करने वाली नामी कंपनी गल्फ पेट्रो केम अब  गल्फ स्टील जबलपुर के नाम से इस्पात उत्पादन करेगी।
 जानकारी के अनुसार कंपनी ने जबलपुर में सिविल लाइन क्षेत्र में अपना क्षेत्रीय कार्यालय स्थापित कर ली है जहां कंपनी के प्रोजेक्ट इंजीनियर कैलाश जोशी कंपनी के प्लांट को शुरू करने संबंधी कामकाज देख रहे है।
जमीन खरीदी
कंपनी सूत्रों के मुताबिक कंपनी को शासन ने करीब 20 एकड़ जमीन हरगढ़ में देने के लिए पेशकश की थी किन्तु कंपनी बड़े प्रोजेक्ट के लिए  करीब 100 एकड़ जमीन चाह रही थी। इसके चलते कंपनी ने समीप स्थित घुघरा ग्राम में 70 एकड़ जमीन क्रय कर लिया है जिसमें बाउंड्रीवाल तथा अन्य निर्माण कार्य चल रहा है।
मुख्य मंत्री से मुलाकात
गल्फ स्टील जबलपुर की स्थापना के सिलसिल में कंपनी के डायरेक्टर दिल्ली निवासी आयुष गोयल की मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ पूर्व में एक अन्य उद्योगपति के साथ मुलाकात हो चुकी है और मुख्य मंत्री ने उद्योग स्थापना के लिए अनुकूल माहौल एवं सहयोग का आश्वासन भी दिया है जिसके बाद यहां इस्पात उद्योग के स्थापना को तेज गति मिलेगी। उल्लेखनीय है कि उद्योग स्थापना संबंधी शासनकीय ओर से अनुमति एवं अन्य खानपूर्ति का कार्य भोपाल से ही हो रहे है। कंपनी ने शासन के साथ मई 2013 में करार कर चुकी है।

आयरन ओर पर्याप्त
मालूम हो कि सिहोरा तहसील में गोसलपुर सहित आसपास के इलाके में प्रचुर मात्रा में आयरन ओर मिल रहा है। इसमें आयरन की मात्रा में पर्याप्त है। अब तक यहां से आयरन ओर निर्यात किया जाता रहा है। जबलपुर का आयरन ओर चाइना सहित देश के अन्य स्टील कारखाने में जाता रहा है। आयरन ओर ब्लू डस्ट के रूप में बाहर जा रहा है। यहां प्रचुर मात्रा में आयरन ओर मिलने के कारण हरगढ़ में स्टील उत्पादन संबंधी 7 छोटी इकाइयां विभिन्न कंपनियों की कार्यरत है लेकिन ये प्रोजेक्ट काफी बड़ा होगा तथा क्षेत्रीय लोगों को रोजगार के साथ क्षेत्र के विकास की संभावना को लेकर आएगा।
बाक्स --
आयरन के कारोबार में जहां मंदी का दौर चलने के कारण उद्योग स्थापना को लेकर संशय भी जाहिर किया जा रहा था लेकिन कंपनी के जिम्मेदार अधिकारियों का कहना है कि कंपनी स्टील उत्पादन के लिए तैयार है और उनके उत्पादन के लिए गल्फ में खरीददार भी मौजूद है।
वर्जन
कंपनी तेजी से उद्योग स्थापना की दिशा में कार्य कर रही है। जल्द की कागजी खानापूर्ति अभी शेष है। उद्योग स्थापना के कुछ समय लगेगा।
कैलाश जोशी
प्रोजेक्ट इंजीनिय्

पुलिस विभाग का विश्वसनीय साथी वायरलैस रेडियो



जबलपुर। शहर के किसी भी कोने में कोई अपराध हो या किसी भी अधिकारी कर्मचारी को कोई संदेश पहुंचाना हो तो वायरलैस सेट सबसे बढ़िया, सस्ता और टिकाऊ माध्यम है। वाईफाई और मोबाइल तकनीक के बावजूद वायरलैस सेट की अपनी उपयोगिता है, जिस पर पुलिस विभाग आज भी निर्भर है। देशभर में तकनीक को लेकर नए नए प्रयोग हो रहे हैं तो उपयोग भी किया जा रहा है, वहीं वायरलैस रेडियो और हैंडसेट अभी भी अपनी जगह बनाए हुए हैं।
एक सेट की कीमत 15-20 हजार
पुलिस कर्मियों के  हाथों में रहने वाले एक हैंडसेट की कीमत लगभग 15 से 20 हजार रुपए होती है। जिसे कर्मचारी के नाम पर ही दर्ज किया जाता है। यदि कभी धोखे से यह खो जाए तो कर्मचारी को अपनी जेब से इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है। इसलिए पुलिसकर्मी हमेशा इसके लिए फिक्रमंद रहते हैं। वहीं गाड़ियों और थानों में लगा सिस्टम इससे ज्यादा कीमत का होता है।
हर थाने में कम से कम 20 हैंडसेट
शहर या गांव हर जगह इस तकनीक से ही पुलिस कर्मी संपर्क में बने रहते हैं। अल्फा, बीटा, सिग्मा या माइक इस तरह के कोड़ के जरिए संबंधित अधिकारी या कर्मचारी को मैसेज भेजा जाता है। रेडियो विभाग के उप अधीक्षक जितेन्द्र पटेल ने पीपुल्स समाचार से चर्चा के दौरान बताया कि हर थाने में कम से कम 20 हैंडसेट हैं, जो अधिकारियों से लेकर कर्मचारियों तक के हाथों में रहते हैं, इनकी खासियत यह है कि ये 15 किलोमीटर की रेंज तक काम करते हैं।
सबको एक साथ मिलता है संदेश
किसी को भी कोई संदेश देना हो तो रेडियो वायरलैस आज भी सबसे उपयुक्त माध्यम हैं, क्योंकि इसमें मैसेज छोड़ते ही संबंधित व्यक्ति के साथ-साथ उसके सहयोगी को भी मैसेज मिल जाता है। वहीं अधिकारियों को जब कोई मैसेज एक साथ सबको देना होता है तो वे भी रेडियो का ही उपयोग करते हैं।
...वर्जन...
रेडियो वायरलैस आज भी पुलिस विभाग में सबसे उपयोगी तकनीक है, मोबाइल और इंटरनेट के बावजूद इसकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है, क्योंकि ये सस्ता, सुन्दर, टिकाऊ होने के साथ साथ भरोसेमंद भी है। इसमें हैकिंग या डाटा चोरी होने जैसे कोई भी खतरे नहीं हैं।
जितेन्द्र पटेल, उप अधीक्षक, रेडियो

*गुप्त सैनिकों का पूरी तरह जासूस की भूमिका में लाएगी पुलिस

  बालाघाट में नक्सलियों से निपटने
  और तेज कर रही पुलिस मुखबिर तंत्र

*गुप्त सैनिकों का पूरी तरह जासूस की भूमिका में लाएगी पुलिस

जबलपुर। बालाघाट में काफी अरसे से थमी नक्सली मूवमेंट कुछ महीनों से तेज हो गई है। नक्सली जहां पुलिस के मुखबिर तंत्र को खत्म करने जहां पिछले दिनों पुलिस के एक मुखबिर की हत्या कर मुखबिरों के बीच सनसनी फैला दी लेकिन पुलिस नक्सलियों की इस रणनीति को पलटवार जवाब देने रणनीति तैयार कर चुकी है। यहां पुलिस गुप्त सैनिक की नक्सली प्रभावित इलाकों में कर रही है। ये गुप्त सैनिक जासूस की भूमिका में मैदान में उतारे जा रहे है। ।
सूत्रों का कहना है कि बालाघाट पुलिस को शासन ने करीब 300 गुप्त सैनिक दे रखे थे लेकिन ये पुलिस के सहायक बने हुए थे, उनसे दफ्तरों में बल की कमी के कारण काम लिया जा रहा था किन्तु अब इन गुप्त सैनिक को प्रशिक्षित जासूस की तरह मैदान में उतारने की रणनीति पर तेजी से काम शुरू कर दिया गया है।
 अब आदिवासी के बीच रहेंगे
ये गुप्त सैनिक अब धोती और बंडी में आदिवासियों के बीच उनकी तरह नजर आएंगे। आदिवासियों की तरह नाम रखकर उनके बीच घुलमिल कर रहने वाले ये  सैनिक दरअसल पुलिस के जासूस होंगे। जिनका काम नक्सलियों के गांवों में आगमन, उनके करीबी लोगों की खैर खबर रखने के बाद पुलिस को सूचना देते रहेंगे।

पहले से है
सूत्रों की माने तो बालाघाट में गुप्त सैनिकों की पहले से तैनाती की गई लेकिन इसके बावजूद पुलिस को नक्सली मूवमेंट की सटीक जानकारी नहंी मिल पा  रही थी। पुलिस को जो नक्सलियों की जानकारी मिलती रही है वे उनके अपने मुखबिर यानी आदिवासी ग्रामीणों से मिलती रही है और नक्सली सबसे पहले उन्हें ही निशाना बना रहे है। इसके जवाब में गुप्त सैनिकों को उनके कार्य के अनुरूप तैयार किया जा रहा है।
जंगलों में हर राह खतरा
 पुलिस ने गुप्त सैनिकों की मदद से जंगलों मे नक्सलियों कीे आने जाने के गुप्त मार्गो का नक्शा तैयार कर लिया है। उनको किस गांव में शरण मिल सकती है। इस तमाम जानकारी के बाद वहां पुलिस ने घात लगाकर बैठ गई है। 

सूख गई हिरन नदी


सूख गई हिरन नदी

* सिहोरा, कटंगी और पाटन के सैकड़ों गांव प्रभावित
 * नदी के साथ एक लाख मवेशियों के कंठ सूखे

 जबलपुर। जबलपुर में सिहोरा, पाटन तथा मझौली तहसील की जीवन रेखा हिरन नदी का आंचल सूख गया है जिसके कारण करीब डेढ़ सौ ग्रामों में इन्सानों के साथ ही मवेशियों को पेयजल का संकट खड़ा हो गया है। हिरन नदी से सिहोरा नगर के 18 वार्ड की जनता को पानी मिलता था लेकिन नदी सूखने के कारण यहां लोगों को हिरननदी का मीठा पानी से वंचित हो गए है। नगर पालिका किसी तरह बोर एवं टैंकरों से से  पानी से लोगों की प्यास बुझा रही है। प्रशासन उल्टी गंगा बहाने की कवायद  कर रहा है।
उल्लेखनीय है कि हिरन नदी के सूखने के कारणों को ध्यान न देकर इसमें पानी बढ़ाने के लिए बरगी बांध की नहर से पानी छोड़े जाने के लिए कागजी घोड़े दौडाए जा रहे है। जहां हिरन नदी  जो कि नर्मदा की सहायक नदी है और हिरन का पानी नर्मदा में जाना चाहिए लेकिन प्रयास हो रहा है कि नर्मदा का पानी हिरन को मिले। दरअसल हिरन के सूखने की वजह इसके  घाटों ही नहीं समूची नदी से रेत का बेजा दोहन है।  हिरन नदी के हाल- बेहाल हो गए है। यहां नदी में कई किलोमीट दूर तक ं बंजर जमीन की तरह सूखी बड़ी है। कई किलोमीटर के बाद कहीं गड़्ढ़े अथवा कुण्ड में तलहटी में पानी नजर आता है और ग्रामीण कई किलोमीटर दूर से आकर पानी ले जाते है अथवा अपने मवेशी लेकर पहुंचते है।
आम ग्रामीणों का मानना ळै कि हिरन नदी की इस दुर्दशा का जिम्मेदार  प्रशासन स्वयं ही है। गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों से जिस प्रकार से अवैध रेत नदी से निकाली गई। इस बात से कोई भी अनजान नहीं है। और आज ये हालत है कि सदाबहार जीवंत रहने वाली हिरन  नदी गढ्ढों में तब्दील होकर रह गई है।लोगों के अनुसार हिरन नदी चिरंजीवी नदियों में से एक है जो चाहे कितनी भी प्रचंड गर्मी हो लेकिन कभी न सूखने वालीन् नहीं थी। इसमें जंगलों एवं पहाड़ों से अनेक नाले मिलते थे जो इसे भरी गर्मी में पानी की आपूर्ति करते थे लेकिन वे स्त्रोत भी सूख गए है। हिरन की दुर्दशा प्रशासन के लिए भी एक बहुत बड़ी चुनौती साबित होगी। क्षेत्रीयवासियों का कहना है कि विगत दो वर्षों से नदी का सूखना कुछ वर्षो से मानसूनी वर्षा न होने के चलते  पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं मिल रहा है तो वहीं माइंस की खदानों का नियम विरुद्ध अधिक खुदाई के चलते जलस्तर गिरता जा रहा है दूसरी और देखा जाये तो आज जंगलो में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई रुकने का नाम नहीं ले रही है।
नर्मदा की मुख्य सहायक नदी
 उल्लेखनीय है कि हिरण नदी नर्मदा नदी की मुख्य सहायक नदी  है जिससे हिरन नदी के किनारे बसे डेढ़ सौ गांव में पेयजल सहित निस्तार के पानी मिलता है। इस वर्ष जहां अल्प वर्षा के कारण हिरन नदी में  पानी कम रहा अप्रैल माह खत्म होते होत हिरण नदी की मुख्य धारा सूख गई है। कहीं कहीं हिरन नदी में कुण्डों में बुश्किल तलहटी में पानी है। करीब 1 लाख से अधिक मवेशियों की प्यास बुझाने वाली नदी सूख चुकी है।
सिहोरा में आपूर्ति बंद
हिरन नदी के  मझगवां घाट स्थित फिल्टर प्लांट से नगर पलिका सिहोरा 18 वॉर्ड को पीने के पानी की जलापूर्ति होती थी लेकिन हिरन के सूखने के कारण करीब 48 हजार की आबादी हिरन के पानी से वंचित हो गई है। करता है, सिर्फ सात दिनों के लिए पानी की आपूर्ति हो सकेगी।
अवैध खनन मुख्य कारण
हिरननदी में सर्वाधिक दोहन रेत का होता है। खासतौर पर गर्मी के मौसम में नदी के पानी कम होने के साथ ही बड़ी बड़ी मशीनों से पूरी नदी का सीना छलनी कर दिया गया है। जहां तहां कुण्ड बन गए है। नदी का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ जाने से नदी में जल स्त्रोत बंद हो गए जिससे गर्मी में हिरन सूख गई है।
 तलहटी में ठहरा पानी
कूम्ही सतधारा,  घाटसिमया , मझगवां घाट सहित अनेक घाट एवं कुण्डों में तलहटी में  पानी बचा है जिससे बमुश्किल लोगों का निस्तार चल रहा है। अंचल में जहां हिरन के किनारे अंधाधुंध होने वाले बोर भी हिरन नदी के सूखने का एक कारण समझा जा रहा है। 

Thursday, 14 April 2016

जंगल को डेमज कर रहे हाथी


 नेशनल पार्क में बढ़ती हाथियों की संख्या
जबलपुर। पर्यटन के लिए नेशनल पार्क में हाथी पाले वाले हाथी ही जंगल को बुरी तरह नुकसान पहुंचा रहे है। वन विभाग इसकी अनदेखी कर रहा है। दरअसल टाइगरों की नेशनल पार्क में संख्या बढ़ने के साथ इसकी निगरानी ओर गश्त में हाथी का उपयोग किया जा रहा है। इन हाथियों की खुराक की व्यवस्था करने के बजाए वन अमला उन्हें जंगल में ही चरने के लिए छोड़ दिया जाता है और ये हाथी जंगल को भारी नुकसान पहुंचा रहे है।
जानकारों का कहना है कि मध्य प्रदेश स्थित पन्ना , बांधवगढ़, कान्हा, पेंच, सतपुड़ा के जंगल हाथियों के रहवास के अनुकूल नहीं है। आंध्र एवं छत्तीसगढ़ के बस्तर के जंगल जरूर हाथियों के अनुकूल है।


साल के पेड़ नष्ट हो रहे
मध्य प्रदेश के  जंगल में साल के वृक्षों की संख्या काफी है। साल का पेड़ का तना काफी मुलायम होता है। हाथी अपने बड़े दांतों को साल के पेड़ में गड़ा कर उसकी छाल आदि नष्ट कर रहे है जिससे सॉल के पेड़ सूख रहे है। साल वृक्ष का रस मीठास लिए होता है जो  हाथियों को आकर्षित करता है। ये इसको बुरी तरह नुकसान पहुंचाते है। इसी तरह कम उंचाई वाले वृक्ष जंगल में ज्यादा है जिनको हाथी न केवल चरते हैं बल्कि उनको नष्ट भी कर रहे है।
खुले चरने छोड़ा जा रहा
नेशनल पार्क में हाथियों को पर्याप्त खुराक नहीं दी जाती है। उनको चारा उपलब्ध नहीं कराया जाता है। पेट भरने के लिए उन्हें चारा खाने जंगल में छोड़ दिया जाता है। अलबत्ता हाथियों को प्रोटिन युक्त खुराक आटा तो दिया जाता है लेकिन इससे उनका पेट नहंी भरता है। पेट भरने के लिए उन्हें पेड़ पत्तियां खाने जंगल में छोड़ दिया जाता है जो बुरी तरह जंगल बर्बाद कर रहे है। हाथियों के पैरों से दबकर जंगल की जमीन पर भी असर पड़ रहा है, मध्य प्रदेश के जंगल के अनेक पौधे एवं झाड़ियां बड़ी संख्या में इन हाथियों के कारण नष्ट हो रही है।

चैन भी नुकसान पहुंचा रही
पालतू हाथियों के पैर पर भारी भरकम चैन बांध कर छोड़ा जाता है जिससे उन्हे खोजा जा सके। ये चैन छोटी वनस्पतियों के लिए कटर की तरह काम कर उन्हें बर्वाद कर रही है।
क्या है उपयोग
नेशनल  पार्क में टाइगर दर्जन के लिए हाथियों का इस्तेमाल किया जाता है। इस पर सवार होकर पर्यटक टाइगर के करीब तक पहुंचते है। इसके अतिरिक्त टाइगर की निगरानी भी वन अमला हाथियों के माध्यम से कर रहा है। हाथी  के नेशनल पार्क में बेजा उपयोग को वन्य प्राणी विशेषज्ञ अनुकूल नहीं मानते है।
तनावग्रस्त होते है टाइगर
हाथी से टाइगर दर्शन नेचरल नहीं है। टाइगर के करीब हाथी जाने से टाइगर टेंशन में आ जाता है और उसके एकांत में भी हस्तक्षेप रहता है। जंगल में टाइगर को खुला छोड़ने से भी दूसरे जानवर अनुकूलता महसूस नहीं करते है। नेशनल पार्क में हाथियों की संख्या सीमित की जाए तथा उन्हें एक बांडे में ही रखना उचित है।
मनीष कुलश्रेष्ठ
प्राणी विशेषज्ञ
कहां कितने हाथी
 नेशनल पार्क  - संख्या
 बांधवगढ़ - 25
पन्ना -  8
सतपुड़ा  -8
कान्हा-  26
संजय  गांधी- 2
पेंच -8

लैंटाना को बनाया आदिवासियों ने जीविका का साधन


 एक खरपतवार जो जंगल ओर खेत दोनों के लिए बनी नासूर
जबलपुर। लैंटाना एक ऐसा खरपतवार है जो खेत-खलिहान के साथ जंगल और मैदान के लिए नासूर बना हुआ है। भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों के लिए से समस्या बनें हुए है। इसको नष्ट करना बेहद कठिन काम है। गर्मी में जंगल में भीषण आग का कारण भी लैंटाना की झाड़ियां मुख्य वजह बनती है लेकिन इस अनुपयोगी वनस्पति को मंडला के आदिवासी अपने रोजगार का जरिया बना लिए है। आदिवासियों अपनी कला और मेहनत की दमखम से इससे शानदार फर्नीचर बना रहे है, इसकी लकड़ी का ईधन के रूप में भी उपयोग कर रहे है।
लैंटाना व्यापक पैमाने में कृषि, पर्यावरण, वन प्रबंधन और ग्रामीण परिवहन मार्ग में बाधक बना हुआ है। लैंटाना के सभी रूपों लाल तथा रंग-गिरंगे फूल आकर्षक होते है लेकिन ये विषाक्त होते है। इनको जानवर भी नहीं खाते है। इसी तरह लैंटाना झाड़ी को यदि भूखे मवेशी खा लेते है तो उनपर जहरीला असर होता है। कुल मिलाकर लैंटाना अनुपयोगी खरपजवार है।
सभी तरह के फर्नीचर निर्माण
मंडला के आदिवासी ग्राम गाढ़ी, रमपुर, केहरपुर सहित अनेक गांव के आदिवासी जंगल से लेंटाना झाड़ी का मुख्य शाखा जो करीब 4-5 सेंटीमीटर तक मोटा होता है, उसे काट लेते है। इसको छीलने और साफ करने के बाद कुर्सी, टेबिल, स्टूल, सोफा सहित अनेक तरह के फर्नीचर बना रहे है। लेंटाना की लकड़ी के बने फर्नीचर अच्छी कीमत में जा रहे है। इसी तरह घरेलू शो पीस भी तैयार किए जा रहे हैं। लेंटाना की पतली लकड़ियों से हल्के शो पीस आइटम तैयार किए जा रहे है। लेंटाना की शेष झाड़ियां आदि का उपयोग जलाने तथा अन्य घरेलू काम में लिया जा रहा है। जहां एक ओर आदिवासियों ने लैंटाना की लकड़ी का उपयोग सीख लिया है दूसरी तरफ लैंटाना से जंगल को मुक्ति मिलने का रास्ता भी नजर आने लगा है।
वर्जन
लेंटाना के फर्नीचर का इस्तेमाल अभी मंडला जिले की आदिवासियों द्वारा ही किया जा रहा है। आदिवासियों को लैंटाना के उपयोगी इस्तेमाल सिखाया जा रहा है ।
 निसार कुरैशी
एनजीओ
बाक्स
जंगल पर अतिक्रमण
प्रदेश के जंगलों में लैंटाना का जबदस्त तरीके से फैलाव होता जा रहा है। जंगल में नए उगने वाले पौधों को लैंटाना की झाडियां अपने तले अंकुरित होने और पनपने से रोकती है जहां लैंटाना होती है वहां के पेड कमजोर पड़ जाते है। वन विभाग को प्रतिवर्ष लैंटाना की झाड़ियां काटकर उसे जलाने में लाखों रूपए खर्च करना पड़ता है। झाडियों के जलाने पर्यावरण भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।





रेलवे में बायो फ्यूल का सीमित उपयोग शुरू


 पमरे में कई ट्रेंने दौड़ रही बायो फ्यूल से
जबलपुर। बायो फ्यूल (रतनजोत से निर्मित आइल) का रेल चलाने के रेलवे के पुरानी कोशिश को अब जाकर सफलता मिलती नजर आ रही है। पश्चिम मध्य रेलवे ने प्रयोग के तौर पर लोकोशेड इटारसी में करीब आधा दर्जन से अधिक इंजनों में डीजल के साथ बायो फ्यूल मिलाकर ट्रेने चलाना प्रारंभ की है। इसके पीछे जहां पेट्रोलियम पदार्थ की खपत कम करना है तथा दूसरी तरफ बायो फ्यूल को बढावा देना है।
रेल इंजन बायो फ्यूल से चलाने की योजना लम्बे अर्से से रेलवे के पास लम्बित हैं लेकिन अब तक  बायो फ्यूल का सफल उपयोग नहीं हो पाया है। बायो फ्यूल से इंजन की क्षमता पर प्रतिकूल असर महसूस किया गया है। बायो फ्यूल जहां डीजल से सस्ता पड़ता है। रेलवे व्यापक पैमाने में बायो फ्यूल का इस्तेमाल करना चाहती है। इसके चलते पश्चिम मध्य रेलवे ने बायो फ्यूल का इस्तेमाल शुूर हकर दिया है।
जानकारी के मुताबिक इटारसी लोकोशेड में इंजनों में डीजल भरते समय करीब 5 प्रतिशत बायो फ्यूल इस्तेमाल कर रहा है। रेलवे सूत्रों की माने तो डीजल में पांच प्रतिशत बायो फ्यूल मिलाए जाने के बाद जब ट्रेनें चलाई गई तो उसकी गति पावर सहित अन्य किसी तरह की परेशानी सामने नहीं आई है। रेलवे ने बायो फ्यूल मिलाए जाने पर इंजन को लेकर जो अध्ययन किया है, वह रिपोर्ट पॉजिटिव आई है जिससे रेलवे उत्साहित है। जल्द ही जबलपुर रेल मंडल के अधीन कटनी स्थित लोकोशेड में भी डीजल की आपूर्ति के दौरान 5 प्रतिशत बायो फ्यूल का उपयोग किया जाएगा। हाल ही में पश्चिम मध्य रेलवे के महाप्रबंधक ने इंजनों में बायो फ्यूल का इस्तेमाल प्रयोग के तौर पर करने का खुलासा भी किया है।


पश्चिम मध्य रेलवे जोन ने कुछ इंजनों में 5 प्रतिशत बायो फ्यूल का इस्तेमाल प्रयोग के रूप पर शुरू किया है। इसका लगातार अध्ययन किया जा रहा है। यदि यह प्रयोग पूर्णत: सफल होता है तो बायो फ्यूल का इस्तेमाल बढ़ाया जा सकता है।
 पी. माथुर
 सीपीआरओ पमरे 

मध्य प्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा के पर्यावरण से खिलवाड़

अरबों रूपए की रेत खनन कर रहा माफिया


 अरबों रूपए की अवैध रेत निकल रही
 शासन प्रशासन के तमाम प्रयास फेल
जबलपुर। प्रदेश भर में रेत माफिया बेलगाम है। न्याय पालिका के आदेशों एवं विपक्ष के शोर शराबे के बावजूद अब तक रेत माफिया पर कोई नकेल शासन नहीं कस पाया है। पूरे प्रदेश में रेत के ठेके भी आॅन लाइन किए गए लेकिन इसके बावजूद अवैध रेत खनन लगातार जारी है। नर्मदा एवं उसकी सहायक नदियों से अरबों रूपए की अवैध रेत निकल रही है। इस कारोबार में आड़े आने वाले को गोली मार दिया जाना बेहद मामूल बात हो चुकी है। हाल ही में जबलपुर-नरसिंहपुर मे एक सप्ताह के अंतराल में रेत माफियों के बीच गोलीबारी की दो संगीन वारदातें हो चुकी है।  रेत माफिया का दबदबा ऐसा है कि निचले स्तर के अफसर तो रेत खदान की ओर रूख भी नहंी कर रहे है।
  रेत माफिया के लिए दो माह गोल्डन पीरियड रहा है। अप्रैल और मई गर्मी के इन दो महीनों में नदी का जल स्तर कम होने पर रेत माफिया पूरी नदी को मशीन लगाकर अरबों रूपए की रेत का अवैध खनन किया। नर्मदा एवं उसकी सहायक नदियों के पर्यावरण से जबदस्त तरीके से खिलवाड किया गया है। सिर्फ जबलपुर जिले में ही इन दो महीने करीब 36 लाख रूपए का जुर्माना अवैध खनन के मामले खानापूर्ति के चलते पकड़े गए है।
एनजीटी के आदेश नजर अंदाज
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की युगल पीठ ने हाल ही मे समाजसेवी विनायक परिहार की  जनहित याचिका पर अपने एक महत्वपूर्ण फैसले मे नरसिंहपुर जिले मे नर्मदा और सहायक नदियों में हो रहे अवैध उत्खनन को तत्काल रोकने हेतु प्रदेश शासन के माध्यम से नरसिंहपुर जिला कलेक्टर को निर्देशित भी किया है।

 पर्यावरण का खतरा
प्रदूषण नियंत्रण मंडल के क्षेत्रीय अधिकारी एनएस द्विवेदी का कहना है कि जिस तरीके से रेत खनन नर्मदा एवं उसकी सहायक नदी में किया जा रहा है, उससे नर्मदा के पर्यावरण के लिए जबदस्त खतरा है। लिए जाने से रेत में रहने वाले जंतु एव सूक्ष्म जीव खत्म हो रहे है जिससे नर्मदा के पानी को खतरा है। खनन से नदी का प्राकृतिक प्रवाह भी बिगड़ रहा है। प्रदूषण नियंत्रण मंडल अपने एक विस्तृत रिपोर्ट भी तैयार कर रहा है।

कोई निर्देश मायने नहीं
 मध्य प्रदेश खनिज विभाग ने नर्मदा नदी की सहायक नदी हिरन में रेत खनन के लिए करीब 53 घाटों को प्रतिबंधित कर रखा है। दरअसल ये घाट पानी भराव वाले इलाके है लेकिन इन गर्मियों के मौके पर मशीनें लगाकर रेत माफिया ने पूरे घाटों को खोखला कर डाला है। हिरन नदी में जबदस्त तरीके से रेत निकासी का परिणाम है कि हर वर्ष बारिश में हिरन की बाढ़ तबाही बरपाने लगी है। अदालत एवं शासन प्रशासन के आदेश के बावजूद  नदियों को बचाने के लिए रेत माफिया की पोकलेन मशीनो के पहिए नहीं रोके जा सके है। जब कभी रेत माफिया के खिलाफ किसी ने सिर उठाया है तो उसको गाली खानी पड़ी है। जबलपुर में ही एक सब इस्पेक्टर की बेलखेड़ा क्षेत्र की खदान में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। मुरैना के आईपीएस नरेंद्र कुमार को कुचलकर मार दिए जाने का मामला किसी से छिपा नहीं है। जबलपुर, नरसिंहपुर और होशंगाबाद के रेत घाटों एवं रेत नाकों में आए दिन खजिन अमला और कभी कभी पुलिस पिटती रही है। इस खून खराबे के बीच में रेत की लूट में अफसर नेता और बाहुबली की सांठगांठ भी छिपी नहंी है। राजनेताओं के साझे में खनन कंपनिया पूरे प्रदेश में काम कर रही है।
 


 झांसीघाट कुख्यात
जबलपुर में बरगी बांध बनने के बाद से रेत की उपर से आमद कम हो  गई है। जमतरा ,ग्वारीघाट और तिलवाराघाट और लम्हेटा में लगभग रेत पूरी तरह खत्म हो चुकी है। ये घाट प्रतिबंधित किए गए है लेकिन अब इसमें रते भी नहीं बची है। यहां रेत माफिया ने अब जमतरा पुल, तिलवारा पुल के नीचे तक की रेत निकाल कर पुल के लिए खतरा बन गए है। रेत का असल भंडारण झांसी घाट में है। यहां प्रतिबंधित कुछ क्षेत्रों में खनन चल रहा है। हाल ही में रेत माफिया की आपसी लाई में एक जान भी जा चुकी है। यहां अवैध उत्खनन पर रोक के बावजूद खनन बदस्तूर चल रहा है। नरसिंहपुर के  पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष महंत प्रीतम पूरी, संजीव चंदोरकर और विनायक परिहार के नेतृत्व मे एक प्रतिनिधि मण्डल ने जिला कलेक्टर से मिल चुका है लेकिन प्रशासन रेत के अवैध उत्खनन एवं परिवहन रोकने में असफल है।

 इन घाटो में अवैध खनन
नर्मदा के सगुनघट, ककरा घाट, झिकोली घाट, मुगार्खेडा, घाट पिपरिया, नीमखेड़ा, झांसीघाट, वीर कटंगी, रामघाट, बरमानघाट सहित दर्जनों प्रतिबंधित घाटों में अवैध खनन जारी है।
ये है विसंगतियां
उत्खनन कार्य के लिए बड़ी-बड़ी मशीनों और डंपरों का प्रयोग पर रोक है। नदी के भीतर सैक्शन पंप एवं नाव से ही रेत निकासी की जाएगी, लेकिन नदी में मशीन लगाकर धारा बदल कर रेत खोदी जा रही है। झाँसी घाट में एनएच 216 के पुल के नीचे रेत खोदी जा रही है। रेल ब्रिज भी अवैध खनन से खतरे में आ गया है। मध्य प्रदेश की राज मछली महाशीर विलुप्त होने की कगार में है। जलबलपुर, नरसिंहपुर, रायसेन, होशंगाबाद, और सीहोर जिलो मे नर्मदा और सहायक नदियों मे हो रहे अवैध उत्खनन की जांच के प्रति प्रशासन बेखबर है।

किसानों की बंजर जमीन लहलहाने लगी


 जैविक खेती से कर दिखाया कमाल



 9424514521
जबलपुर। बंजर पथरीली जमीन जिसमें नमी तक नहीं ठहरती हैं और सिचाई के भी साधन नहीं हैं, ऐसी जमीन फसल से लहलहाने लगी है। ये चमत्कार जैविक खेती के बदौलत हुआ है।
 मंडल तथा जबलपुर जिले के आदिवासी ग्राम जहां आदिवासी किसानों की जमीनें तो है लेकिन ये बंजर पड़ी हुई है। उनमें चारा भी ठीक तरह से नहीं उगता था। सिंचाई का कोई साधन मौजूद नहीं था, पथरीली और मुरम वाली जमीन में नमी भी नहीं होती है। ऐसी बंजर जमीन पर अब आदिवासी अपनी मेहनत के बलबूते पर उपज ले रहे है। इन आदिवासियों को जैविक खेती ाी सिखाने का काम कर रहे हैं  कृषि वैज्ञानिक, कृषि कालेज के सेवानिवृत प्रोफेसर वीके राव  और उनके साथी। मंडला जिले के लगभग 30 गांव के आदिवासी जैविक तरीके से खेती करना सीख चुके है।
 आदिवासी ग्रामों में सैकड़ौ हैक्टेयर बंजर जमीन में आदिवासियों की पौष्ठिक परम्परागत उपज कोदो, कुटकी के साथ हरी सब्जियां भी उग रही है।
शून्य लगात खेती
यूं तो आधुनिक खेती की दिन प्रतिदिन लागत बढ़ती जा रही है। ऐसे में आदिवासी समाज जो लागत नहीं लगा सकता है। महंगी होती यूरिया और डीएपी जैसी खाद नहीं खरीद सकता है। अपने खेतों के लिए सिंचाई के लिए ट्यूबवेल नहीं लगवा सकते है तथा बिजली पर खर्च नहीं कर सकते है। उनको परम्परागत खेती को वैज्ञानिक तरीके से कराके शून्य लागत पर खेती कराई जा रही है। इसमें आदिवासियों को अपनी उपज से ही बीज और अपने प्राकृति साधनों से ही खाद तैयार करवाई जा रही है।
जमीन का पीएच सुधरवाया

आदिवासी के जमीन में मौजूद अम्लीयता एवं छारियता को संतुलित करने के लिए प्रतिएकड़ 1 हजार क्विंटल नीम एवं गोबर निर्मित खाद डलवाई गई इससे तीन साल में पीएच वैल्यू में गिरावट आई। किसान बिना जिंक सल्फेट आदि डाले अपने खेतों को उपज देने योग्य बना चुकें हैं।  किसानों को जैविक खाद बनाना सिखाया गया। गाय भैंस तथा अन्य जानवरों के गोबर में गुड एवं गौमूत्र मिलाकर सात दिनों में जैविक खाद तैयार करना भी किसान सीख गए है। इसी तरह केचुए से बनी खाद तथा गोबर खाद आधुनिक तकनिक तरीके से किसान तैयार कर रहे हैं। जैविक खेती के कारण अब उनके खेतों में लम्बे समय तक नमी भी बनी रहती है और पानी की समस्या भी खत्म हो गई है।
विज्ञान केन्द्र में प्रशिक्षण
 पर्यावरण संरक्षण एवं अदिवासी विकास केन्द्र के संचालक डॉ वीके राय ने ग्राम हर्रा पटपरा में विज्ञान केन्द्र खोल रखा है जहां आदिवासियों को जैविक खेती सिखाकर उनकी बंजर जमीन में उपज लेने की विद्या सिखाई जा रही है। आदिवासी मंडला के 30 ग्राम सहित दरगड़ा, घाट पिपरिया, सालीवाड़ा, बांकी
चिखला, धावनगोड़ी, जमुनिया, खामखरेली के कृषक इन दिनों विज्ञान केन्द्रों में प्रशिक्षण ले रहे है।
 जैविक खादों के नाम
 केन्द्र में जैविक खेती के प्रशिक्षक गोधनलाल धुर्वे ने बताया कि यहां गोमूत्र नीम सत, अमृतजलम, पांच पत्तीकाढ़ा, फसल वर्द्धक लड्डू , दूध गोमूत्र टानिक जैसे फाल में उपयोग आने वाले जैविक उर्वरक बनाने का विधि सिखाई जाती है। नीमसत फसल को कीट से बचाव के लिए तैयार करवाया जाता है। गौमूत्र का उपयोग खेत में यूरिया की मात्रा बढ़ाने के लिए किया जाता है। इसी तरह फसल वर्द्धक लड्डू का उपयोग डीएपी की जगह किया जाता है। उन्होंने बताया कि आदिवासी परम्परागत उपज के अतिरिक्त  भिंडी, गिलकी, तरोई, सेम, बरबटी, बैगन तथा अन्य सब्जियों भी अपनी बंजर पड़ी जमीन में पैदा कर रहे है। 

नर्मदा तटों पर कीटनाशक का बेजा उपयोग


जबलपुर। नर्मदा एवं उसकी सहायक नदियों के हजारों हैक्टेयर कछार में व्यापक पैमाने में सब्जी उत्पादन हो रहा है।  जबलपुर तथा मंडला जिले में सिर्फ नर्मदा के किनारे करीब 15 हजार हैक्टेयर में सब्जी की खेती होती है। करीब इतनी ही खेती होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले में हो रही है। नदियों के किनारे व्यवसायिक तरीके से सब्जी उत्पादन में जमकर कीटनाशक का इस्तेमाल कर रहे है और ये घातक रसायन बारिश में नदी में मिल रहे है जिससे नर्मदा के तट जहरीले होते जा रहे है।

उल्लेखनीय है कि पूर्व में नदी के किनारे परम्परा गत खेती होती रही है लेकिन जिस तरह से खेती का व्यवसार्यीकरण हुआ है। उससे नर्मदा के कछार जहरीले हो गए है। नर्मदा के कछार में सर्वाधिक भटा, टमाटर तथा हरी सब्जियों ठंड एवं गर्मी में उत्पन्न की जा रही है। महाकौशल क्षेत्र में कुल सब्जी उत्पादन का 20 प्रतिशत उत्पादन नर्मदा के कछारों से हो रहा है। सब्जी उत्पादन से किसानों को जो आमदनी होती है, वह अन्य फसलों की तुलना में 40-50 प्रतिशत अधिक है।  सब्जियों की व्यावसायिक खेती से कीटों तथा बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ा है। नतीजतन किसानों द्वारा कीटनाशक रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है। बारिश और सिंचाई के चलते यहीं प्रदूषित जहरीला पानी नर्मदा मे मिल रहा है।
 प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी एनएस द्विवेदी की माने तो नर्मदा में सूक्ष्म जीवों के खत्म होने का बहुत बड़ा कारण कीटनाशक की नर्मदा में मिलना है।
जैविक खेती विकल्प
कृषि वैज्ञानिक एसएस तोमर ने बताया कि नर्मदा एवं उसकी सहायक नदी को कीटनाशक के जहर से बचाने के लिए उसके कछारों एवं उसके निकट स्थित खेतों का व्यापक पैमाने में सर्वे करने के बाद वहां सिर्फ जैविक खेती को ही बढ़ावा देना चाहिए। जहां जैविक खेती से उत्पन्न सब्जियों का स्वाद बेहतर होता है तथा ये मानव शरीर में प्रतिकूल असर नहीं डालती है। बाजार में अनेक कंपनियों के जैविक खाद एवं जैविक कीटनाशक मौजूद है जिसका उपयोग किसान कर सकते है। दूसरी तरफ कृषक जैविक कीटनाशकों पर भरोसा नहीं कर रहे है। उन्हे तत्काल असर दिखाने वाले पेसटीसाइड पर ही भरोसा है। श्री तोमर ने बताया कि ऐसी तकनीक मौजूद है जिससे सब्जियों में े कीटों तथा बीमारियों का हमला कम होता है।
सरकार ने संज्ञान में लिया
प्राप्त जानकारी के अनुसार नर्मदा नदी के किनारे खेती में होने वाले कीटनाशक के इस्तेमाल को सरकार ने संज्ञान में लिया है। सरकार जल्द ही निर्णय ले सकती है कि नर्मदा के किनारे कछार में खेती मे कीटनाशक पूर्ण प्रतिबंधित कर दिया जाए। इसके चलते कृषि मंत्रालय से एक परिपत्र भी प्राप्त हुआ है। इसके चलते नरसिंहपुर एवं मंडला जिले में सर्वे

 कराया जा रहा है कि वहां कितने इलाके में खेती हो रही है और कौन कौन किसान कीटनाशक का इस्तेमाल कर रहा है।

जगरूकता जरूरी
 सरकारी प्रतिबंध के बावजूद भी यह संभव नहीं है कि किसानों को कीटनाशक के प्रयोग करने से रोका जाए। ऐसे में जरूरी है कि किसान में जागरूकता आए और वे स्वयं की कीटनाशकों का इस्तेमाल कर करे।
बीपी त्रिपाठी
 संयुक्त संचालक कृषि जबलपुर

कुत्ते हुए आदमखोर !


 जबलपुर। जंगली जानवर भी आदमी को मार कर नहीं खाते हैं। कभी कभी टाइगर आदमखोर हो जाते हैं, लेकिन कुत्ते आदमखोर होते है, ऐसा कम ही देखने और सुनने को मिलता है किन्तु जबलपुर मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर स्थित जुनवानी गांव के डेढ़ दर्जन आवार कुत्ते आदमखोर हो चुके हैं। ये मानना ग्रामीणों और प्राणी विशेषज्ञों का है।
कुत्ते आदमखोर कैसे हुए है, इसको लेकर पड़ताल चल रही है। दरअसल कुत्ते हिंसक होकर आदमी पर हमला नहीं कर रहे बल्कि वे जंगली जानवर की तरह घेर कर आदमी को शिकार कर रहे है। गांव में रामदीन और रमेश नामक व्यक्ति को जब कुत्तों ने घेर कर उसे काटा और उसका मांस चोथने और जान से माने कोशिश की तो पता चला कि गांव के कुछ कुत्तों का बरताव आदम खोर की तरह हो गया है। गांव में एक दर्जन से अधिक लोगों को कुत्ते बुरी तरह से काट चुके हैं।
जबदस्त खौप
कुत्तों के खौफ के कारण गांव में अकेले कोई दिशा मैदान के लिए नहंी जा रहा है। जबदस्त दहशत लोगो में व्याप्त है। कब कहां से कुत्ते आ जाए और उन्हें शिकार बना ले।
 जानवरों पर आफत
गांव में करीब एक दर्जन से अधिक बछड़े तथा बकरियों को मार कर ये आवारा कुत्ते पूरी तरह खाकर चट कर चुके है। रोटी और जूठन से पलने वाले कुत्ते मांस भक्षी और शिकारी प्रवृति के हो चुके है।

 मारने का निर्णय
पिछले दिनों गांव में जिला प्रशासन के अधिकारी तथा ग्राम पंचायत के जिम्मेदारों ने प्राणी विशेषज्ञ के साथ दौरा किया। कुत्तों की प्रवृति को देखते हुए   उनको मारने का निर्णय लिया गया है। जल्द ही इस संबंध में अधिकृत आदेश जारी होने की संभावना है।

वर्जन
 कैसे बदली प्रकृति
 गर्मियों में स्कूल बंद होने पर मध्यान भोजन नहंी पका और बासी एवं जूठन से गांव में पलने वाले आवारा कुत्तों को खाने के लिए मिलना बंद हो गया। गांव के मरने वाले जानवर को खुले में फेंका जाता था जिसे खाकर कुत्ते मांस भक्षी हुए और उनकी प्रकृति भी बदल गई।
मनीष कुलश्रेष्ठ
प्राणी विशेषज्ञ

सकोरे सूने पड़े है..गौरेया नदारत

शहरों में तेजी से घटी चिड़ियां
जबलपुर। भोर में चिड़ियों की चहचहाट कुछ सालों में प्रदेश के बड़े शहरों से लुप्त होती जा रही है। दरअसल कांक्रीट के जंगल में अब इनका घर नहीं बन पा रहा है। पशु-पक्षी विशेषज्ञों की माने तो राजभोगी शहर अब गौरेयों के रहने लायक नहीं रह गया है। शहरी क्षेत्रों में इन परिंदों की संख्या 60 प्रतिशत तक घट गई है। गर्मी के मौसम की दस्तक के साथ ही लोगों ने परिंदों को पानी पिलाने के लिए सकोरे टांगने शुरू कर दिए है लेकिन उनके सकोरे सूने है वहां गौरेया नहीं पहुंच रही है।
शहर में बहुत से पक्षी प्रेमी ऐसे भी है जो प्रतिदिन तड़के परिंदों को दाना डालते है लेकिन अब उनको ऐसे स्थान खोजना पड़ रहे है जहां दाना डालने पर परिंदे पहुंच जाएग। घर के आंगन में चहचहाने वाले परिंदों में मुख्य गौरेया हुआ करती थी लेकिन अब इसकी संख्या बेहद कम हो चुकी है।


  पिछले कुछ सालों में शहरों में गौरैया की कम से कम होती जा रही है।
खपरैल के मकान नहंी
प्राणी विशेषज्ञ मनीष कुलश्रेष्ठ का कहना है कि बहुमंजिली इमारतों के बनने तथा लैंटर वाले कांक्रीट के मकान बनने के कारण गैरेया जो खपरैल के छतों में यहां वहां अपने घोसलें बनाया करती थी, अब उन्हें घोसले बनाने के लिए जगह नहीं मिल रही है। श्री कुलश्रेष्ठ का मानना है कि शहरों की जगह गैरेया ने अपना ठिकाना गांव को बना रखा है। गांवों में अब भी पर्याप्त संख्या में गैरेया मौजूद है। सुबह एवं शाम को इनका बसेरा बबूल के पेड़ों पर नजर आता है।
शहर में नहीं मिलते तिनके
शहरों में पॉलीथीन के बेहद उपयोग तथा खत्म होती घासफूंस के कारण उन्हें अपना घोसला  बनाने के लिए जूट और तिनके नहंीं मिल रहे है जिसके कारण वे घोसले नहीं बना पर रही है। इसी तरह गैरेया अपने जूजों को कीड़ों के लार्वा खिलाती है लेकिन शहर में कीड़ों के लार्वा मिलना कठिन हो रहे है। इसके चलते अब उनका पलायन गांवों की ओर हो चुका है और अब शहर की ओर उनके लौटने की संभावना भी कम है।
 जगमगाती स्ट्रीट लाइन
पशु विशेषज्ञों का मानना है कि ये परिंदा सोलर टाइम के हिसाब से अपनी दिनचर्या रखता है। सूरज निकलने पर वे घोंसले से निकलते है और शाम ढलते लौट आती है। शहरों में रात्रि में जगमगाती स्ट्रीट लाइटों के कारण भी गौरेया शहर से दूर जा रही है। वहीं शहरों का बढ़ता तापमान गौरेयों को रास नहंी आ रहा है।
बाक्स
तेजी से घट रही है गौरेया
 बर्डलाइफ इंटरनेशनल के सर्वेक्षण के मुताबिक गौरेयों की संख्या में करीब 60 प्रतिशत कमी आई है। भारत में तेजी से इनकी संख्या घटी है। खेतों में फसल की कटाई गहाई में मशीनों के उपयोग के कारण इनके सामने दाना की समस्या भी खड़ी हुई है। इसके साथ ही इनकी मृत्यु दर में भी 20 प्रतिशत वृद्धि हुई है। इसका सबसे बड़ा कारण खेतों में बेजा कीट नाशक का उपयोग है ओर जहरीले दाने चुगने के कारण बेहिसाब मौते हो रही हे। खेतों में कीटनाशक एवं कैमिकल फर्टिलाइजर के उपयोग के कारण केचुए तथा अन्य कीडे मकोड़े घटने से उनके चूजों को लार्वा नहंी मिल रहा है। इसके चलते अब गांव के आंगन में भी गैरेयों की चहचहाकट घटी है। ंमनीष कुलश्रेष्ठ का कहना है कि शहर में तेजी से मोबाइल टॉवर और अब फोर जी टॉवर बनने से इससे होने वाले इलेक्ट्रोमैनेटिक रेडिएशन से गौरैया के  नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है। वहीं अब अंडों से चूजे भी बमुश्किल निकल पा रहे है।

ब्रूसिलोसिस से इन्सानों में संक्रमण खतरा


* हर साल लाखो दुधारू पशु होते है संक्रमण का शिकार
* पशु वैज्ञानिकों के सेमीनार में मंथन

जबलपुर। देश में गाय-भैंस में तेजी से ब्रुसिलोसिस बीमारी का संक्रमण हो रहा है और लाखों दुधारू गाय भैंस इस बीमारी की चपेट में आते है। एक बार संक्रमण का शिकार मवेशी हो जाता है तो उसको पूर्ण स्वस्थ्य करना कठिन हो जाता है। इसे में टीकाकरण ही एक मात्र उपाय है। इतना ही नहीं संक्रमित पशुओं से इंसानों में भी इस बीमारी का फैलाव होने का खतरा बढ़ा है।
नानाजी देशमुख पशु चिकित्सा महाविद्यालय में पहुंचे वैज्ञानिकों ने पशु संबंधी बीमारी सहित अनेक गंभीर विषय पर गहन मंथन किया। इसमें जहां विदेशी नस्ल की गाय के दूध को लेकर कैं सर एवं शुगर की बीमारी पर हुए शोध पर चर्चा हुई तो देशी नस्ल की गायों के विलुप्त होने के खतरे पर भी मंथन किया गया।

 क्या है ब्रूसिलोसिस
ब्रूसिलोसिस बीमारी पशुओं में बैंग रोग, क्रीमिया बुखार, जिब्राल्टर बुखार, के नाम से जानी जाती है और इसका संक्रमण बेहद खतरनाक होता है। संक्रमित मवेशी के इसका दूध एवं अधपका मांस खाने से संक्रमण मनुष्य में आने का खतरा बना हुआ है। यह एक बैक्टीरियल बीमारी है। एक बार मवेशी कोे बैक्टीरिया का संक्रमण होता है तो उस मवेशी के शरीर में अजीवन बना रहता है।
गर्भवती गाय-भैंस को संक्रमण के कारण गर्भपात होता है। इसके बाद दोबारा होने वाले बच्चे कमजोर होते है। मवेशियों की दूध देने की क्षमता भी 20-30 प्रतिशत घट जाती है। जबकि इस बीमारी के संबंध में पशुपालक एवं किसान लगभग अनभिज्ञ है।
अन्य मवेशी भी पीड़ित
इसी बीमारी से सिर्फ गाय-भैंस भर नहीं वरन इसकी चार किस्म होती है जो बकरी, भेड़ और कुत्ते और सुकर जैसे पालतू पशुओं में भी होती है। इसी बीमारी का एक रूप बी कैनीस है जो मुख्यत: कुत्तों में होती है। कुत्तों से जंगली जानवरों में फैलने के खतरे को देखते हुए टीकाकरण अभियान भी चलाया गया।
भारत में खतरनाक
भारत में दूध की बिना जांच के बाजार में आता है जिससे संक्रमित जानवर के दूध एवं मांस से बीमारी मनुष्यों में आने का खतरा है। इसके लिए पशु पालकों में जागरूकता की जरूरत है। वे अपने मवेशियों को पशु चिकित्सक से जांच जरूर कराए।
 डॉ. पूरणचंद
वरिष्ठ वैज्ञानिक

शहद बदल रही आदिवासियों की जिंदगी



* अब खुद कर रहे अपनी ब्रांडिंग

जबलपुर। शहद सहित अन्य वनोपज का वैज्ञानिक तरीके से दोहन करने से आदिवासियों की जिंदगी में बदलाव आ रहा है। नरसिंहपुर जिला के चिचली तथा आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों पर शहद के रूप में धन वर्षा हो रही है। इसके पहले भी आदिवासी जंगली पहाड़ी क्षेत्र से मधु मक्खियों के छत्ते तोड़कर शहद एकत्र किया करते थे लेकिन व्यापारियों की मुनाफाखोरी के कारण उनकी हालत में कोई सुधार नहीं था और उनको श्रम एवं वनोपज का उचित दाम नहीं मिल रहा था लेकिन सहकारी समिति बनाकर अब वे स्वयं अपनी ब्रांडिंग कर रहे है और शहद का वाजिब मूल्य मिलने से धनवर्षा हो रही है।
उल्लेखनीय है कि नरसिंहपुर जिला के वन ग्राम बड़गांव के आदिवासियों द्वारा वर्षो से वहां से लगी पहाड़ी से मधु मक्खियों के छत्ते तोड़कर शहद एकत्र करना उसकी जीविका का साधन रहा है। समीपस्थ वन क्षेत्र एवं पानी की प्रचुर उपलब्धता के कारण यहां बड़ी संख्या में मधुमक्खियों की कालोनियां रहती है। मार्च तथा अप्रैल माह में मधु मक्ख्यिों के छत्तों की संख्या बेहद बढ़ जाते है। इस सीजन में मधु मक्खियां व्यापक पैमाने में मकरंद एकत्र कर शहद बना लेती है और मई जून माह से छत्तों से शहद एकत्र करने का काम शुरू हो जाता है यूं तो यहां लगभग 6 -7 महीने यही काम चलता है।
 सस्ते में खरीदते रहे है
 आदिवासियों द्वारा 25-50  रूपए किलों के भाव से शहर खरीद लिया करते थे। हजारों लीटर शहद का यहां उत्पादन होता रहा है। किन्तु इसके बावजूद आदिवासी परिवार की हालत दयनीय रही है। इस काम से उनका परिवार तक चलना कठिन हो जाता था।

हाल ही में  गठित हुई समिति
एनजीओं के मार्गदर्शन में इस वन ग्राम के 58 आदिवासियों ने स्व सहायता समूह बनाकर सहकारी समिति गठित की है। जय बड़ा देव बहुउद्देशीय सहकारी समिति मर्यादित बड़ा गांव द्वारा अब स्वयं शहर का उत्पादन कर उसे बेचना शुरू की है। समिति के 58 आदिवासी परिवार न केवल स्वयं शहद एकत्र करते है वरन समीपस्थ आदिवासी ग्राम टुईयापानी ,सांवरी, भोमरी, मिलमाढाना सहित अनके गांवों से आदिवासियों का शहद भी स्वयं खरीद लेत है और उसकी ब्रांडिंग कर शहद बेच रहे है।

मुनाफा कई  दुगना
जहां आदिवासियों को अपना शहर 50 रूपए में बेंचना पड़ता था अब वे अपना 300-400 रूपए प्रति किलो के हिसाब से बेंच रहे है। शहर के उत्पादन के हिसाब से वे मूल्य निर्धारण भी कर रहे है। इससे आदिवासियों की जिंदगी में बदलाव आ रहा है। इस  स्व सहायता समूह बनाकर कार्य करने में प्रत्येक आदिवासी को मात्र 110 रूपए की पूंजी निवेश मात्र करनी पड़ी है।
तेन्दुखेड़ा में होता है प्रशंस्करण
कच्चे शहद को रिफाइन करने का काम तेन्दुखेड़ा में होता है। यहां शहद एकत्र करने वाली कंपनी सहकारी समिति से उनके दाम पर शहद खरीद रही है जिसके चलते शहद की बिक्री की भी कोई समस्या नहंी है।
वैज्ञानिक तरीके से काम
उल्लेखनीय है कि पूर्व में आदिवासी धूआ कर तथा मंत्र आदि पढ़ने के बाद कम्पल ओढ़ कर मधु मक्खियों के दतते तोड़ा करते थे लेकिन सहकारी समिति बनने पर शहद एकत्र करने वालों की को रस्सा, चाकू, ड्रेस , बाल्टी, सीढी आदि आधुनिक किट उपलब्ध कराई जा रही है। जिससे उनका काम भी सरल हो गया है।

गोलाबारूद से भरी बोगिया

आखिर क्यों बेपटरी हो रही


रेलवे ने जांच कर फाइल
ठंडे बस्ते में डाली
जबलपुर। मुख्य रेलवे स्टेशन से आयुध निर्माणी खमरिया को जाने वाली साइड लाइन में लगातार गोला बारूद से भी बोगिया बेपटरी हो रही है। पटरी से बोगी उतरने से बड़े खतरे की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है। गोला बारूद से भी बोगियां पटरी से उतरने और ट्रेन दुर्घटना में संयोग से अब तक कोई बड़ा विस्फोट नहंी हुआ है लेकिन इस आशंका से अब एक सिरे से इंकार भी नहीं किया जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2015 में अगस्त माह में हाईली एक्सप्लोजिव तथा बम गोले से भरी पांच बोगिया पटरी से उतर गई थी। दो दिनों तक बोगियां खाली करने के बाद बोगियों को पटरी पर लाया गया था। इस घटना को आयुध निर्माणी तथा रेलवे दोनों ने भारी गंभीरता से लिया था। इस दौरान जानकारों का कहना था कि यदि बोगिया पलट जाती तो भीषण विस्फोट होता तथा बेहद तबाही मच जाती।
जांच के निर्देश हुए
इस घटना के बाद जांच के निर्देश हुए थे और जांच टीम ने अपनी जांच पूरी कर इसके रिपोर्ट भी रेलवे तथा ओएफके को सौंप दी गई लेकिन इसके बावजूद कोई सुधार कार्य पटरियों पर नहीं हुआ और बाबा आदम जमाने की पटरी पर बम एवं  बारूद से भरी बोगिया दौड़ती रही।
एक पखवाड़े में दो दुर्घटना
इस पखवाड़े में इसी साइड लाइन ने आयुध निर्माणी की बमो से भरी बोगिया दो बार बेपटरी हो गई और बड़ा  हादसा टल गया । सूत्रों की माने तो इस पखवाड़े में हुई पहली दुर्घटना के बाद रेलवे ने जांच पड़ताल कराई। इसमें मुख्य बिन्दु रेल लाइन में आई तकनीकी खामी अथवा मालगाड़ी के चालन में गडबड़ी संबंधी जांच की गई ओर जांच रिपोर्ट भी आ गई लेकिन इस रिपोर्ट के नतीजे को गौर करने के बजाए इस लाइन से गोलाबारूद का परिवहन जारी रखा गया जिसके चलते गुरूवार को फिर बोगिया फिर बे पटरी हो गई।
रख  रखाव की राशि वसूलता है
सूत्रों की माने तो आयुध निर्माणी से स्टेशन तक की साइड लाइन फैक्टरी प्रबंधन ने डलवाई है लेकिन इसका रख रखाव का जिम्मा रेलवे का है और मैनटेनेन्स राशि के रूप  में रेलवे को बड़ी रकम हर साल मिल रही है किन्तु साइड लाइन की मरम्मत होती नहीं है जिसके कारण पुरानी पड़ी लाइन खतरनाक हो गई  है।

वर्जन
मालगाड़ी पटरी से उतरने के लिए जांच कराई गई है जिसकी रिपोर्ट मिल गई है। रिपोर्ट में क्या आई है इसका अध्ययन मैने फिलहाल नहीं किया है किन्तु दुर्घटना की वजह को दूर करने प्रयास किया जाएगा।
सुरेन्द्र यादव
सीपीआरओ, पमरे

भविष्य की रेल, बिजली भी उत्पादन करेगी


 सोलर एनर्जी तैयार करने
 वाली एक कोच तैयार
जबलपुर। बढ़ती हुई बिजली की जरूरत को देखते हुए रेलवे स्वयं अपनी जरूरतों के लिए बिजली उत्पादन की दिशा में सोचने लगा है। भविष्य में कोच को और सुविधा सम्पन्न और बनाया जाता है तो निश्चित ही ऊर्जा की और जरूरत पड़ेगी। यदि सब कुछ ठीक ठाक चला तो निकट भविष्य में ट्रेन की बोगियों में ही बिजली उत्पादन होगा। रेलवे के इस सपने को साकार और कोई नहीं अक्षत ऊर्जा स्रोत यानी सौर ऊर्जा एवं विंड ऊर्जा ही करेगी।
इस दिशा में पश्चिम मध्य रेलवे ने पहल शुरू कर दी है। यहां एक कोच ऐसा तैयार करवाया गया है, जिसकी छत पर सोलर पैनल लगाया गया है। दिनभर सूरज की किरणों से बिजली बनती रहती है। इसी तरह विंड एनर्जी के उपयोग का भी भविष्य में इस्तेमाल हो सकता है। इसके लिए प्लेटफॉर्म

की छतों तथा रेलवे अपनी भूमि पर विंड ऊर्जा उत्पादन की दिशा में काम कर सकता है। पश्चिम मध्य रेलवे जोन के इंजीनियर इस दिशा में लगातार प्रयोग और शोध कर रहे हैं। कोटा रेल मंडल में विंड ऊर्जा से बिजली उत्पादन के लिए गेट पर टॉवर लगाया गया है। यह टॉवर सिर्फ प्रयोग के तौर पर लगाया गया है।
भविष्य की बोगियों की मांग
भविष्य में यदि यात्री की सुविधाओं को बढ़ावा दिया जाता है। वाईफाई, मिनी एसी, पेंट्रीकारों में हीटर तथा ऊर्जा के अन्य संसाधन बढ़ते हैं और बोगियों में वर्तमान डिमांड से अधिक बिजली की जरूरत पड़ती है तो प्रदूषण रहित बिजली उत्पादन ट्रेनों में क्यों न किया जाए? इस पर रेलवे विचार कर रहा है।
छतों पर होगा उत्पादन
बोगियों की छतों पर सोलर प्लेट लगाई जा सकती है और उससे काफी ऊर्जा उत्पादन होगा। इसको प्रयोग के चलते पश्चिम मध्य रेलवे ने सोलर एनर्जी से लैस एक कोच तैयार भी कर लिया है। इस बोगी का निर्माण
वर्तमान तो पमरे ने बाहर से कराया है, लेकिन पश्चिम मध्य रेलवे में ऐसे इंजीनियरों की फौज मौजूद हैं। जिन्हें साजो-सामान उपलब्ध हो जाएगा तो वे सोलर प्लेट वाली बोगियों की लाइन लगा सकते हैं।
गर्मी में होगी उपयोगी
गर्मी में ट्रेन में नॉन एसी में यात्रा करने वाले यात्री को भीषण गर्मी में सफर करना पड़ता है। इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ साइंस ने रेलवे कोच की छतों पर सोलर सीट फिट करने की सलाह दी है, जिससे कोच में गर्मी भी कम रहेगी और इसके साथ बोगी में बिजली की आपूर्ति भी होगी। इससे डीजल तथा बिजली की किफायत भी होगी। वर्तमान में एसी कोच में करीब 25 किलोवाट बिजली की खपत होती है, जबकि नॉन एसी कोच में पंखे और लाइट के लिए करीब 15 किलोवाट बिजली की जरूरत पड़ती है।
...वर्जन...
बोगियों पर सोलर पैनल लगाने का कार्य फिलहाल एक बोगी में प्रयोग की तौर पर किया गया है। रेलवे की

अन्य बोगियों पर सोलर पैनल लगाने का कोई विचार एवं प्रस्ताव नहीं है। भविष्य की संभावनाओं को तलाशते हुए सिर्फ रेलवे इंजीनियर्स प्रयोग कर रहे हैं। इसी तरह विंड एनर्जी पर भी रेलवे प्रयोग कर रहा है।
पीयूष माथुर, सीपीआरओ, डब्ल्यूसीआर

सूना कर डाला मां नर्मदा का आंचल


रेत माफियाओं की करतूत, घाट के घाट कर दिए खाली, पर्यावरण को हो सकता है भारी खतरा


नदियों की नैसर्गिक सुंदरता और उसके मूल स्वभाव से होती छेड़छाड़ प्रदूषण को लगातार बढ़ा रही है। प्रदेश की मुख्य नदी नर्मदा का तो समूचा अस्तित्व ही रेत माफियाओं की भेंट चढ़ रहा है। अवैध तथा मशीनों के जरिए किए जा रहे बेतरतीब उत्खनन ने नर्मदा के कई हिस्सों को रेत से सूना कर डाला है। ऐसे स्थानों पर लगता है कि यह नर्मदा नहीं बल्कि कोई गंदा नाला हो। पर्यावरणविदों का मानना है कि इस तरह की गफलत आने वाले वक्त के लिए किसी भी रूप में सुखद नहीं कही जा सकती।
 शहरी क्षेत्र में नर्मदा नदी कि किनारे जहां लगातार बिल्डिंग, अपार्टमेंट, होटल  और कॉलोनियां बिना रोकटोक के बन रही है। इनमें सीवरेज का पानी मिल रहा है। भू माफिया नर्मदा के नैसर्गिक जल भराव क्षेत्र पर गिद्धों की तरह टूट रहे हैं।
गायब हो गई रेत
  कल-कल करती मां नर्मदा के आंचल में रेत माफियाओं की ऐसी नजर लगी की उन्होंने पूरा सीना छलनी कर दिया। रेत ऐसी साफ कर दी कि नीचे बोल्डर, पत्थर के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा है। रेत के सहारे लोग नर्मदा की गोद तक पहुंच जाते थे, पर नुकीले पत्थरों के कारण वे भी जाने से डरने लगे हैं। रेत माफियाओं ने इस कदर अवैध उत्खनन किया है कि तलाशने पर भी रेत नहीं मिलती है। प्रत्येक घाटों में पत्थरों के सिवाए कुछ नहीं बचा है।
खिरहनी में स्टॉक का अड्डा
सूत्र बताते हैं कि इस समय दिन-रात जेसीबी मशीन तथा नाव खेकर रेत माफियाओं के लोग खिरहनी घाट को खाली करने का दौर चला रहे हैं। इस घाट में जिस तेजी के साथ अवैध रूप से रेत निकाली जा रही है, उससे तो ऐसा लग रहा है कि मानो प्रशासन ने रेत निकालने की छूट दे रखी है। यहां रात के वक्त किश्ती से रेत निकालकर घाट किनारे एकत्र की जा रही है और उसके बाद अलसुबह से ट्रैक्टर और मिनी ट्रक में परिवहन करने का दौर जारी हो जाता है, जो दिनभर चलता है। इस घाट से प्रतिदिन करीब तीन से चार सौ टन रेत का उत्खनन हो रहा है।
खादी का संरक्षण
अवैध रेत निकालने का काम एक या दो दिनों से नहीं, बल्कि लम्बे समय से तेजी चल रहा है, लेकिन मजाल है कि कोई कार्रवाई करने की हिम्मत जुटा सके। बताया जाता है कि रेत माफियाओं को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। तिलवारा से लेकर चरगवां के बीच करीब जेसीबी मशीनें, 18 किश्तियां और पचासों मजदूर सिर्फ इसलिए लगे हंै कि रात भर रेत निकाली जा सके। इस घाट से रोजाना करीब 75 से 80 ट्रॉली रेत निकाली जा रही है।
बरमान घाट में निकल आए पत्थर
नर्मदा के बरमान घाट पर नजर दौड़ाई जाए तो पूरी तरह रेत निकाली जा चुकी है। माफियाओं ने इस कदर रेत निकाली है कि पत्थर निकल आए हैं। यह कारनामा एक दिन में नहीं, बल्कि कई महीनों में कर दिखाया गया है और प्रशासन पूरी तरह चुप्पी साधे हुए है।
...वर्जन...
हम लगातार समीक्षा कर रहे हैं और अफसरों को निर्देश दे रखे हैं कि वे रेत माफियाओं पर सख्ती बरतें। इसके लिए लगातार मुहिम भी चलाई जा रही है। पुलिस व प्रशासन के अधिकारियों को संयुक्त कार्रवाई करने को कहा गया है।
राजेन्द्र शुक्ल, खनिज मंत्री, मध्य प्रदेश सरकार
वर्जन...
नर्मदा का आंचल सूना कोई सामान्य घटना नहीं है। इससे पर्यावरण का दूरदर्शी खतरा मंडरा रहा है। रेत निकालने का तौर-तरीका होता है पर मशीनों से अंधाधुंध उत्खनन निश्चित तौर पर नर्मदा के अस्तित्व को संकट में डाल सकता है। असंख्य सूक्ष्म जीव मर रहे होंगे और यही प्रदूषण को बढ़ाने का सबसे कारण बन सकता है।
एस. एन. द्विवेदी,
क्षेत्रीय अधिकारी,
मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड.

50 जिलो की 130 नदी, नालों को किया जाएगा पुनर्जीवित


प्रदेश सरकार ने कसी कमर

जबलपुर। जल ही जीवन है और इसे बचाने के लिए जितनी जवाबदारी सरकार की है उतनी ही आम लोगों की। मप्र सरकार भी कुछ इसी तरह का प्रयास करने जा रही है। 50 जिलो की 130 नदियों तथा नालों को पुनर्जीवित करने के लिए सरकार ने बेड़ा उठाया है। इसके लिए आम लोगों की सामूहिक सहभागिता को भी जोड़ा जा रहा है। जिससे जल संकट कभी न निर्मित हो सके। प्रदेश के बुंदेलखण्ड इलाका ऐसा है जहां गर्मी के दिनों में पानी की जल संकट सबसे अधिक रहता है इसके पीछे पानी के संरक्षण के लिए किसी तरह का कदम नहीं उठाया जाना पाया गया है। अब नदी, पोखर तथा नालोें के संरक्षण के लिए बनी योजना लाभकारी होगी। इस प्रयास के लिए मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तथा पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री तथा सामजिक न्याय मंत्री गोपाल भार्गव खुद आगे बढ़कर जलाभिषेक अभियान के तहत कार्य कराना शुरू कर दिया है।
पेय जल आपूर्ति वाले स्थलों की पहचान
सरकार ने सबसे पहले ऐसी नदी व नालोें को चिन्हित किया है,जो कभी अपने स्थान विशेष के जीवन रेखा होती थी और अब वे सूखी हो गयी हैं। इन सभी नदियों को प्रदेश में चल रहे जलाभिषेक अभियान के तहत युद्ध स्तर पर पुनर्जीवित करने का कार्य सामूहिक सहभागिता से किया जा रहा है।  जहां से पीने के पानी की सप्लाई हो सके। इसके लिए स्थानीय नगर पालिका, नगर निगम, पंचायतों में आने वाले फण्ड का उपयोग किया जाएगा।
इन्हें किया जाएगा पुनर्जीवित
भोपाल में चमारी नदी, हलाली नदी, वाह्य नदी, सीहोर में सीवन नदी, कोलांस नदी, उलझावन नदी, पार्वती नदी, विदिशा में बेस नदी, बेतवा नदी, केथन नदी, रायसेन में बारना नदी, हलाली नदी, बेतवा नदी, राजगढ़ में पावर्त नदी, नेवज नदी, उज्जैन में क्षिप्रा के नालें, शाजापुर में भाटन नदी, देवास कालीसिंध एवं उसकी सहायक नदियां, रतलाम में जामण नदी, मंदसौर करनाली नाला, नीमच में बोरखेड़ी नदी, बड़वानी में देब नदी, इंदौर में क्षिप्रा नदी, धार में बाघिनी नदी, मान, मंडावदी, उरी, माही, खुज नदी, चामला, नालछा, बलवन्ती, नर्मदा (मनावर) दिलावारा, सादी, धुलसार, खरगौन में खैर कुण्डी नाला, बंधान नाला, हिसलानी नाला, दसनावल नाला, रामकुला नाला, बनिहार नाला, चिचलाय नाला, सिरस्या नाला, खारिया नाला, झाबुआ में पंपावती नदी, नौगावां नदी, सोनार नदी, नेगड़ी नदी, धोबजा नदी, खण्डवा में कालधयी नदी, बुरहानपुर में महोनानदी, उतरवली नदी, जबलपुर में साकौर नदी, बालाघाट में कन्नौर नदी, छिंदवाड़ा में दुधी नदी, कटनी में निवार नदी, मंडला में झामल नदी, नरसिंहपुर में सीगरी नदी, सिवनी में सागर नदी, रीवा में ओड्डा नदी, सतना में अमहानला, सीधी में कुडेर नदी, झिरिया नदी, रेही, सनई, बेनी, तेंदुआ, नरकुई, खामदई, लोबई नदी, सूखा नाला, सिंगरौली में बदिर्या नाला, सागर में सोनार नदी, छतरपुर में श्यामरी नदी, टीकमगढ़ में पटैरिया नदी, पन्ना में मिढ़ासन नदी, दमोह में कोपरा नदी, ग्वालियर में महुअर, नदी, कांठी नदी, अंडेरी नदी, सिरसी नदी, नगदा नदी, भसुआ नाला, बुड़ नदी, शिवपुरी में सरकुला नदी, साडर का नाला, पारोछ नदी, पार्वती का नाला, अशोकनगर में छेवलाई नदी, दतिया में चरबरा नाला, घूधसी नाल, दुर्गापुर नाल, पठारी नाला, बडौनकला नाला, चिरोल नाला, हिनोतिया नाला, बसई नाला, धोर्रा नाला, टोडा नाल, राधापुर नाला, श्योपुर में सीप नदी, अहेली नदी, कोसम नदी, सरारी नदी, बांसुरी नदी, कुंआरी नदी, ईडर (पार्वती), मुरैना में सांक नदी, सोन नदी, आसन नदी, भिण्ड में बेसली नदी, बैतूल में पूर्णा नदी, ताप्ती नदी, होशंगाबाद में दूधी, पलकमती, मोरन, गंजाल, किवलारी, हथेड़ नदी तथा छोटी नदी, नाले भाजी, निमाचा, इंद्रा एवं लुंगची, हरदा में माचक नदी, सयानी नदी, सांवरी नदी, उमरिया में कथली नाला, डिंडोरी में गोमती नदी, शहडोल में लोरखाना नाला, चूंदी नदी और अनूपपुर में ठेमा नाला, टिपान नदी, बसनिहा नाला, शिवरी चंदास नाला, केवई नदी शामिल हैं।

सुलगते जीवन में इंद्रधुनषी रंग बिखरने प्रयास



बेसहारा बालिकाओं का जीवन संवारने ‘ इंद्रधनुष- आओ रंग बिखेरे’ योजना शुरू

जबलपुर। जबलपुर में  पुलिस महानिरीक्षक महिला प्रकोष्ठ कार्यालय द्वारा ‘ इन्द्र धनुष -आओ रंग बिखेरे योजना ’ शुरू की गई है। इस योजना के नाम से जाहिर होता है  कि इन्द्र धनुष की तरह  सुन्दर और सभी रंग से खूबसूरत रचना बनाने संबंधी योजना है। जी हां समाज की एक ऐसी बालिका जिसके माता पिता नहीं है  बेसहारा है, के जीवन में खुशियों के रंग बिखेरने की योजना है। प्रदेश में समुदायिक पुलिसिंग के तहत पुलिस महिला प्रकोष्ठ द्वारा ये योजना प्रारंभ की गई है।
शहर में ऐसी बालिकाएं जो भीख मांग रही है या कहीं मजदूरी करके पेट  की बाग बुझा रही है। उसका बपचन कहीं गुम है। बाला अवस्था सुलगता जीवन बना है और  कू्रर समाज उस पर गिद्ध की तरह  भूखी नजर गढाए है , उसको नोचने और खाने के लिए  तैयार बैठा है,उसकी पहचान कर उसका भवष्यि सुरक्षित करने की पहल नगर में प्रारंभ की गई है। योजना के तहत इस बेसहारा बालिका के जीवन में खुशियों के रंग भरने के लिए उसके लिए एक परिपालक की भी तलाश की जाएगी। इस परिपालक का बालिका को सहारा मिलने से वह भविष्य में सबल आत्मनिर्भर नारी बनकर पुरूष प्रधान  समाज में सम्मान के साथ जीवन जी सकेगी।  इस योजना का उद्देश्य है कि बालिका के जीवन में  खुशियों के रंग भर जाए लेकिन वर्तमान व्यवस्था में  यह सम्भव प्रतीन नहीं होता  है  कानून या किसी शासकीय कार्यक्रम से गुमनाम  निराश्रित बालिका को सहारा मिल पाए।  इस तथ्य को ही ध्यान में रखते हुए आईजी महिला प्रकोष्ठ प्रज्ञा ऋचा श्रीवास्तव एवं उनके अधीनस्थ इंस्पेक्टर सुरेखा परमार व अन्य  ने एक ऐसी योजना शुरू करने की कल्पना को सकार रूप दिया जिसमें समाज के हर वर्ग, समाज सेवी संस्थाएं और सहृदय लोग के सामुहित प्रयास से निरापद बालिकाओं को सहारा मिल सके। इसमें शासकीय तंत्र का भी सहयोग रहेगा। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह तो इस योजना का शुभारंभ करते वक्त बेहद भावुक हो उठे थे। बहरहाल जबलपुर में भविष्य की एक  बड़ी योजना का बीजारोपण गत शुक्रवार को हो गया।
योजना के संबंध में महिला इंस्पेक्टर सुरेखा परमार ने बताया कि बालकों एवं किशोरों/किशोरियों  को संरक्षण  देने के लिए कानूनी प्रावधान है। उनके लिए सेल्टर हाउस भी है। कई एनजीओ एवं समाजसेवी संस्थाएं कार्य भी कर रही है  लेकिन इसके बावजूद इस दिशा में विशेष गति से कार्य नहीं हो पाए  हैं। अनेक मामले में देखा गया कि ऐसी निराश्रित बालिकाओं को इनके किशोर होने के साथ ही 12-13 वर्ष की उम्र में ही बेंच दिया जाता है अथवा देह व्यापार के घिनौने काम में उतार दिया जाता है। अंधेरी दुनिया में ऐसी अनगिनत बालिकाएं मौजूद  हैं। इस हालत में पहुंचने के पहले ही उन्हें आश्रय देने की जरूरत है। जबलपुर की समाज सेवी संस्थाओं को साथ लेकर निराश्रित बालिकाओं के संरक्षक या प्रतिपालक बनाए जाने का काम सौंपा गया है। दरअसल ये गोद लेने से थोड़ी भिन्न प्रक्रिया है। इसमें बालिकाआें के प्रति उनके संरक्षकों या प्रतिपालकों के दायित्व तय है। वे व्यक्ति अथवा संस्थाएं हो सकते हैं। इसके तहत उनके सुरक्षित आवासीय व्यवस्था, शिक्षा, भरणपोषण एवं स्वास्थ्य का दायित्व सौंपा गया है।
वर्जन
 समाज में निराश्रित बालिकाओं को चिंहिंत किया जा रहा है। इसकेअतिरिक्त प्रतिपालक बनने वालों के आवेदन लिए जा रहे हैं तथा उनका पुलिस सत्यापन के उपरांत नोडल अधिकारी के टीम की मौजूदगी में उन्हें जवाबदारी दी जाएगी। निश्चित ही आने वाले समय में यह योजना से लाभांवित होने वाली बालिकाओं की संख्या बढ़ेगी। इसके अतिरिक्त ये योजना अन्य जिलों में भी लागू की जाएगी। योजना के तहत भविष्य में  बेसहारा बालक को भी इसी तरह  से संरक्षण प्रदान करने का विचार है।  फिलहाल प्रदेश में सिर्फ जबलपुर में ये पहला  प्रयास है।
श्रीमती प्रज्ञा ऋचा श्रीवास्तव
आईजी महिला प्रकोष्ठ

प्रारंभिक चरण की स्थिति एक नजर में
प्रतिपालक बालिकाएं
मप्रवि महिला मंडल - 2
वनवासी चेतना आश्रम -1
एमपी सिंह, कंपनी कमांडर - 2
इंस्पेक्टर सुरेखा परमार -1
श्रीराम शर्मा एसएएफ -1
एमके पांडे -2
मनु खेत्रपाल -1
संध्या विनोदिया -2
सुजाता सिंह -1
गिरीश बिल् लौरे -1
रजनीश सिंह -1