बड़कुल की मीठी ललीज खोवे की जलेबी का जायके की शोहरत विदेशों तक फैली। प्रवासी भारतीय जबलपुर आते है तो बड़कुल मिष्ठान में पहुंच कर खोवे की जलेबी खरीद कर अपने साथ ले जाते है। अमेरिका, इंग्लैंड और मलेशिया के भारतीय मूल के नागरिक जब जबलपुर आते हैं तो वे बड़कुल की दुकान आते है। ये शोहरत इस दुकान ने एक दिन में नहीं बनाई है। बड़कुल परिवार की चौथी पीढ़ी इस काम को कर रही है।
जबलपुर में जब कभी कोतवाली का ये हिस्सा जो कमानिया गेट कहा जाता है मुख्य बाजार और शहर हुआ करता था, तब सन 1889 में दमोह से जबलपुर आए श्रीहर प्रसाद बड़कुल ने यहां खोवे की जलेबी बनाकर बेचने का काम शुरू किया। खोवे की जलेबी लोगों को ऐसी स्वाद लगी की उनके यहां दूर दूर से लोग जलेबी लेने आने लगे। उनके बाद कुछ दिनों तक उनकी धर्मपत्नी इस काम को संभाला। बाद में पुत्र मोतीलाल को विरासत में ये काम मिला। उन्होंने एक दुकान स्थापित कर ली और जबलपुर घूमने आने वाले दूर दराज के इलाके के लोग बड़कुल की जलेबी खरीद कर ले जाते थे। यूं तो अब शहर में सैकड़ों मिष्ठान विक्रेता खोवे की जलेबी बनाते और बेंचते है और पसंद भी की जाती है लेकिन जबलपुर में खोवे की जलेबी की बात आती है तो बड़कुल की दुकान याद की जाती है। बड़कुल परिवार की तीसरी पीढ़ी के निपुण एवं चंद्र प्रकाश अब मिष्ठान दुकान चला रहे है। देशी घी की खोवा की जलेवी के साथ ही, कलाकंद, चमचम, बरफी, गुलाब जामुन, रस मलाई, सहित दर्जनों तरह की मिठाई एवं नमकीन खूब बिकते है। त्योहार के मौके पर तो दुकान में बेहिसाब भीड़ बनी रहती है और अनेक ग्राहकों को खोवा की जलेबी न मिलने के कारण निराश होकर लौटना पड़ता है।
फलाहारी हुआ लोकप्रिय
बड़कुल परिवार की इस पीढ़ी ने एक खासियत में इजाफा किया है। यहां बारहो महीना उपवास को भोजन (फलाहारी) परोसा जाता है। फलाहारी मिठाई, नमकीन सेव , साबुदाना की खिचड़ी साबुदाना के बड़े और मिलते है। तीसरी पीढ़ी के साथ ही इस खानदानी कारोबार में चौथी पीढ़ी ने भी दस्तक दे दी है। निपुण बढ़कुल के पुत्र मनीष पिता का हाथ बटाने लगे है। निपुण बढ़कुल का कहना है कि उनकी दुकान कमानिया में जिस जगह पर है वहां से वे चाहे तो खासे मुनाफा का धंधा शुरू कर सकते है ं लेकिन विरासत से मिले इस काम को छोड़ने का मन नहीं होता है, ये काम अपने बुर्जगों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि भी है।
No comments:
Post a Comment