सकोरे सूने पड़े है..गौरेया नदारत
शहरों में तेजी से घटी चिड़ियां
जबलपुर। भोर में चिड़ियों की चहचहाट कुछ सालों में प्रदेश के बड़े शहरों से लुप्त होती जा रही है। दरअसल कांक्रीट के जंगल में अब इनका घर नहीं बन पा रहा है। पशु-पक्षी विशेषज्ञों की माने तो राजभोगी शहर अब गौरेयों के रहने लायक नहीं रह गया है। शहरी क्षेत्रों में इन परिंदों की संख्या 60 प्रतिशत तक घट गई है। गर्मी के मौसम की दस्तक के साथ ही लोगों ने परिंदों को पानी पिलाने के लिए सकोरे टांगने शुरू कर दिए है लेकिन उनके सकोरे सूने है वहां गौरेया नहीं पहुंच रही है।
शहर में बहुत से पक्षी प्रेमी ऐसे भी है जो प्रतिदिन तड़के परिंदों को दाना डालते है लेकिन अब उनको ऐसे स्थान खोजना पड़ रहे है जहां दाना डालने पर परिंदे पहुंच जाएग। घर के आंगन में चहचहाने वाले परिंदों में मुख्य गौरेया हुआ करती थी लेकिन अब इसकी संख्या बेहद कम हो चुकी है।
पिछले कुछ सालों में शहरों में गौरैया की कम से कम होती जा रही है।
खपरैल के मकान नहंी
प्राणी विशेषज्ञ मनीष कुलश्रेष्ठ का कहना है कि बहुमंजिली इमारतों के बनने तथा लैंटर वाले कांक्रीट के मकान बनने के कारण गैरेया जो खपरैल के छतों में यहां वहां अपने घोसलें बनाया करती थी, अब उन्हें घोसले बनाने के लिए जगह नहीं मिल रही है। श्री कुलश्रेष्ठ का मानना है कि शहरों की जगह गैरेया ने अपना ठिकाना गांव को बना रखा है। गांवों में अब भी पर्याप्त संख्या में गैरेया मौजूद है। सुबह एवं शाम को इनका बसेरा बबूल के पेड़ों पर नजर आता है।
शहर में नहीं मिलते तिनके
शहरों में पॉलीथीन के बेहद उपयोग तथा खत्म होती घासफूंस के कारण उन्हें अपना घोसला बनाने के लिए जूट और तिनके नहंीं मिल रहे है जिसके कारण वे घोसले नहीं बना पर रही है। इसी तरह गैरेया अपने जूजों को कीड़ों के लार्वा खिलाती है लेकिन शहर में कीड़ों के लार्वा मिलना कठिन हो रहे है। इसके चलते अब उनका पलायन गांवों की ओर हो चुका है और अब शहर की ओर उनके लौटने की संभावना भी कम है।
जगमगाती स्ट्रीट लाइन
पशु विशेषज्ञों का मानना है कि ये परिंदा सोलर टाइम के हिसाब से अपनी दिनचर्या रखता है। सूरज निकलने पर वे घोंसले से निकलते है और शाम ढलते लौट आती है। शहरों में रात्रि में जगमगाती स्ट्रीट लाइटों के कारण भी गौरेया शहर से दूर जा रही है। वहीं शहरों का बढ़ता तापमान गौरेयों को रास नहंी आ रहा है।
बाक्स
तेजी से घट रही है गौरेया
बर्डलाइफ इंटरनेशनल के सर्वेक्षण के मुताबिक गौरेयों की संख्या में करीब 60 प्रतिशत कमी आई है। भारत में तेजी से इनकी संख्या घटी है। खेतों में फसल की कटाई गहाई में मशीनों के उपयोग के कारण इनके सामने दाना की समस्या भी खड़ी हुई है। इसके साथ ही इनकी मृत्यु दर में भी 20 प्रतिशत वृद्धि हुई है। इसका सबसे बड़ा कारण खेतों में बेजा कीट नाशक का उपयोग है ओर जहरीले दाने चुगने के कारण बेहिसाब मौते हो रही हे। खेतों में कीटनाशक एवं कैमिकल फर्टिलाइजर के उपयोग के कारण केचुए तथा अन्य कीडे मकोड़े घटने से उनके चूजों को लार्वा नहंी मिल रहा है। इसके चलते अब गांव के आंगन में भी गैरेयों की चहचहाकट घटी है। ंमनीष कुलश्रेष्ठ का कहना है कि शहर में तेजी से मोबाइल टॉवर और अब फोर जी टॉवर बनने से इससे होने वाले इलेक्ट्रोमैनेटिक रेडिएशन से गौरैया के नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है। वहीं अब अंडों से चूजे भी बमुश्किल निकल पा रहे है।
शहरों में तेजी से घटी चिड़ियां
जबलपुर। भोर में चिड़ियों की चहचहाट कुछ सालों में प्रदेश के बड़े शहरों से लुप्त होती जा रही है। दरअसल कांक्रीट के जंगल में अब इनका घर नहीं बन पा रहा है। पशु-पक्षी विशेषज्ञों की माने तो राजभोगी शहर अब गौरेयों के रहने लायक नहीं रह गया है। शहरी क्षेत्रों में इन परिंदों की संख्या 60 प्रतिशत तक घट गई है। गर्मी के मौसम की दस्तक के साथ ही लोगों ने परिंदों को पानी पिलाने के लिए सकोरे टांगने शुरू कर दिए है लेकिन उनके सकोरे सूने है वहां गौरेया नहीं पहुंच रही है।
शहर में बहुत से पक्षी प्रेमी ऐसे भी है जो प्रतिदिन तड़के परिंदों को दाना डालते है लेकिन अब उनको ऐसे स्थान खोजना पड़ रहे है जहां दाना डालने पर परिंदे पहुंच जाएग। घर के आंगन में चहचहाने वाले परिंदों में मुख्य गौरेया हुआ करती थी लेकिन अब इसकी संख्या बेहद कम हो चुकी है।
पिछले कुछ सालों में शहरों में गौरैया की कम से कम होती जा रही है।
खपरैल के मकान नहंी
प्राणी विशेषज्ञ मनीष कुलश्रेष्ठ का कहना है कि बहुमंजिली इमारतों के बनने तथा लैंटर वाले कांक्रीट के मकान बनने के कारण गैरेया जो खपरैल के छतों में यहां वहां अपने घोसलें बनाया करती थी, अब उन्हें घोसले बनाने के लिए जगह नहीं मिल रही है। श्री कुलश्रेष्ठ का मानना है कि शहरों की जगह गैरेया ने अपना ठिकाना गांव को बना रखा है। गांवों में अब भी पर्याप्त संख्या में गैरेया मौजूद है। सुबह एवं शाम को इनका बसेरा बबूल के पेड़ों पर नजर आता है।
शहर में नहीं मिलते तिनके
शहरों में पॉलीथीन के बेहद उपयोग तथा खत्म होती घासफूंस के कारण उन्हें अपना घोसला बनाने के लिए जूट और तिनके नहंीं मिल रहे है जिसके कारण वे घोसले नहीं बना पर रही है। इसी तरह गैरेया अपने जूजों को कीड़ों के लार्वा खिलाती है लेकिन शहर में कीड़ों के लार्वा मिलना कठिन हो रहे है। इसके चलते अब उनका पलायन गांवों की ओर हो चुका है और अब शहर की ओर उनके लौटने की संभावना भी कम है।
जगमगाती स्ट्रीट लाइन
पशु विशेषज्ञों का मानना है कि ये परिंदा सोलर टाइम के हिसाब से अपनी दिनचर्या रखता है। सूरज निकलने पर वे घोंसले से निकलते है और शाम ढलते लौट आती है। शहरों में रात्रि में जगमगाती स्ट्रीट लाइटों के कारण भी गौरेया शहर से दूर जा रही है। वहीं शहरों का बढ़ता तापमान गौरेयों को रास नहंी आ रहा है।
बाक्स
तेजी से घट रही है गौरेया
बर्डलाइफ इंटरनेशनल के सर्वेक्षण के मुताबिक गौरेयों की संख्या में करीब 60 प्रतिशत कमी आई है। भारत में तेजी से इनकी संख्या घटी है। खेतों में फसल की कटाई गहाई में मशीनों के उपयोग के कारण इनके सामने दाना की समस्या भी खड़ी हुई है। इसके साथ ही इनकी मृत्यु दर में भी 20 प्रतिशत वृद्धि हुई है। इसका सबसे बड़ा कारण खेतों में बेजा कीट नाशक का उपयोग है ओर जहरीले दाने चुगने के कारण बेहिसाब मौते हो रही हे। खेतों में कीटनाशक एवं कैमिकल फर्टिलाइजर के उपयोग के कारण केचुए तथा अन्य कीडे मकोड़े घटने से उनके चूजों को लार्वा नहंी मिल रहा है। इसके चलते अब गांव के आंगन में भी गैरेयों की चहचहाकट घटी है। ंमनीष कुलश्रेष्ठ का कहना है कि शहर में तेजी से मोबाइल टॉवर और अब फोर जी टॉवर बनने से इससे होने वाले इलेक्ट्रोमैनेटिक रेडिएशन से गौरैया के नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है। वहीं अब अंडों से चूजे भी बमुश्किल निकल पा रहे है।
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