Wednesday, 6 April 2016

शहीदी स्थल की माटी को नहीं मिल पा रहा सम्मान


एक ऐसी गाथा जो दबी है इतिहास में 
 रेलवे स्टेशन के मालगोदाम से चंद फासले पर लेडी एल्गिन हास्पिटल के सामने सड़क के किनारे छोटा सा जमीन का तुकड़ा पड़ा जिसमें कुछ साल पहले स्तंभ बनाया गया जिसमें इस स्थान को शहीद स्थल बताया गया। इस स्थान का अपना एतिहासिक महत्व है। गोडवाना गणतंत्र पार्टी प्रतिवर्ष यहां महाराजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथशाह की शदीद दिवस मनाते है और सिर्फ इसी दिन लोगों को पता चलता है कि अमर शहीदों को यहीं तोप के मुंह से बांध कर अंग्रेजों ने उड़ाया था।  कुछ साल शहीद स्थल से कुछ फासले पर मालगोदाम पर दोनों  शहीदों की प्रतिमाएं स्थापित की गई है। शहीद स्थल की माटी को वो सम्मान नहीं मिल पा रहा है मिलना चाहिए लेकिन यह वही माटी है स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को कालांतर तक उर्जा प्रदान करती रही। ।    
 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक से बढ़कर एक रौंगटे खड़ी करने वाली अमानीय सजाएं फिरंगियों ने आजादी के दीवानों को दी थी। किसी क्रांतिकारी को तोप के मुहाने में जीवित बांधकर उड़ा कर चिथडें उड़ाए जाने की घटना इसी भूमि में हुई थी। गोंड महाराजा शंकरशाह और  कुंवर रघुनाथशाह ने कमजोर हो चले गोड़ राज्य में अंग्रेजों की खिलाफत करने रन्तु अदम्य साहस व वीरता की जो मिशाल कायम की वह इतिहास में कम मिलती है। जबलपुर डिविजन जो अंग्रेजों की छावनी हुआ करती थी वहां क्रांति का ऐसा बिगुल फूंका था कि अंग्रेस अफसर विद्रोहियों के हौसल पस्त करने क्रूरतम सजा देने के लिए मजबूर हुए थे। 
जबलपुर का इलाका मराठों के पास था जो उन्होंने अंग्रेजों को न केवल सौपा  बल्कि उसमें उन्हें स्थापित होने पूरा सहयोग भी दिया ऐसे समय पर शंकरशाह ओर रघुनाथ शाह अंग्रेजों पर छापामार आक्रमण कर रहे थे। सन १८५७ में को 18 सितंबर को बंदी बना लिए गए रणबाकुरों को तोप से उड़ा दिया गया था।  इन महान शहीदों की कुर्बानी व्यर्थ नहीं गई। जबलपुर में स्वतंत्रता संग्राम का  बीजारोपण कर गए थे और कालान्तर में जबलपुर में स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को इस स्थल से उर्जा मिलती रही। 
एतिहासिक पहलू 
 राजा शंकरशाह के पिता सुमेदशाह थे, जिन्हें हटा कर नरहरीशाह दूसरी बार राजा बने थे।  राजा नरहरीशाह (1716 से 1789) नि:संतान थे । बाद में उन्होंने  राजा शंकरशाह के पुत्र रघुनाथ शाह को गोद ले लिया। राजा नरहरीशाह की 1789 में मृत्यु होने पर राजा शंकरशाह गढ़ा की  राजगद्दी फिर से संभाल ली। उन्होंने 1809 में मराठों के विरोधी आमीरखान पिण्डारी की सहायता से गढ़ा पर वास्विक आधिकार हाशिल किया और 1818 में कर स्थानीय जमीदारों के सामने अपने को राजा घोषित किया.। सन 1841 में गढ़ा गद्दी के दावेदार नर्मदा बक्श जो नरहरीशा का दत्तक पुत्र था ने अपनी दावेदारी की और अंग्रेजों से जा मिला था। राजगद्दी का विवाद कैप्टन विलियन होड़ की अदालत में चला और नर्मदा बक्श के पक्ष के फैसला हुआ। रघुनाथशाह को पेंशन निश्चित कराने के लिए कमिश्नर के यहाँ अपील करने का निर्देश दिया गया। विवाद के चलते मण्डा के लिए से पिता-पुत्र को मंडला के उत्तराधिकार से वंचित कर दिया गया। अंग्रेजी अदालत के फैसले से राजा शंकरशाह की खिलाफत करते हुए अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ 1857 के विद्रोह की पुडी मिलने पर वे भी बागी हो गए।  जबलपुर संभाग के विद्रोहियों का नेत्रत्व राजा शंकरशाह ने स्वयं संभाला। उस समय जबलपुर छावनी भी ा झाँसी, कानपुर, अवध तथा मेरठ की तरह थी।. जबलपुर स्थित   52 वीं पल्टन राजा शंकरशाह से मिल गई।  राजा के सहयोगियों में ठाकुर कुन्दनसिंह (नारायनपुर, बघराजी), जैसिंहदेव, जगतसिंह (बरखेड़ा), मुनीर गौसिया (बरगी), भीमकसिंह (मगरमुहा), शिवनाथसिंह, उमरावसिंह, देवीसिंह, ठाकुर खुमानसिंह (मोकासी), रानी रामगढ़, बलभद्रसिंह, राजा दिलराज सिंह (इमलई), राजा शिवभानुसिंह (बिल्हरी), ठाकुर नरवरसिंह, बहादुरसिंह और कुछ मालगुजार तथा ५२वी पल्टन के ठाकुर पाण्डे और गजाधर तिवारी प्रमुख थे। मराठों द्वारा गौंड फौज खत्म कर दिए जाने के बावजूद राजा ने पुराने जंग खाए अस्तशस्त्र फिर   निकाले और अपनी फौज खड़ी की। 

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